गीता के 151अनमोल वचन
Gita Ke 151 Anmol Vachan
- Bhagvad Gita Quotes
The Bhagavad Gita is set in a narrative framework of a dialogue between Pandava prince Arjuna and his guide and charioteer Krishna. We have presented some of the best quotes in simple hindi language from Bhagvad gita. We wish these quotes will be useful in your life.
* What does the Geeta say?
* What is in Geeta?
* What is Dharma According to Geeta?
* What can the Geeta teach us?
वचन
1
नर्क के
तीन द्वार हैं:
1. वासना
2. क्रोध
3. लालच।
वचन
2
अगर आप
अपने लक्ष्य को
प्राप्त करने
में असफल हो
जाते हैं
तो अपनी रणनीति बदलिए,
न कि लक्ष्य।
वचन
3
क्रोध से भ्रम पैदा
होता है
भ्रम से बुद्धि व्यग्र
होती है
जब बुद्धि
व्यग्र होती
है तब तर्क नष्ट
हो जाता
है
जब तर्क
नष्ट होता
है
तब व्यक्ति का
पतन हो
जाता है.
वचन
4
ऐसा कोई
नहीं
जिसने भी
इस संसार
मे अच्छा कर्म किया
हो और
उसका बुरा अंत हुआ
हो
चाहे इस
काल में
हो या
आने वाले
काल में।
वचन 5
फल की अभिलाषा छोड़
कर
कर्म करने
वाला पुरूष ही
अपने जीवन
को सफल बनाता है।
वचन 6
मन अशांत
है और
उसे नियंत्रित
करना कठिन है
लेकिन अभ्यास से
इसे वश
में किया
जा सकता
है।
वचन 7
अपने कर्म पर
अपना दिल लगाएं
न की
उसके फल पर।
वचन 8
वह जो मृत्यु के
समय मुझे स्मरण करते
हुए अपना शरीर त्यागता
है
वह मेरे धाम को
प्राप्त होता
है - इसमें
कोई संशय
नहीं है।
वचन 9
किसी दूसरे
के जीवन के
साथ,पूर्ण रूप
से जीने
से अच्छा
है
कि हम
अपने स्वंय
के भाग्य के
अनुसार अपूर्ण जियें।
वचन 10
जो मन को नियंत्रित नहीं करते,bउनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है।
वचन 11
एक उपहार तभी
अच्छा और पवित्र लगता
है, जब
वह दिल से किसी
सही व्यक्ति
को सही समय और
सही जगह पर दिया
जाये
और जब
उपहार देने
वाला व्यक्ति
का दिल
उस उपहार
के बदले
कुछ पाने
की उम्मीद ना
रखता हो।
वचन 12
आत्म-ज्ञान की
तलवार से
काटकर
अपने ह्रदय से
अज्ञान के
संदेह को अलग कर दो
अनुशाषित रहो,
उठो।
वचन 13
मनुष्य अपने विश्वास से
निर्मित होता
है
जैसा वो विश्वास करता
है वैसा
वो बन
जाता है।
वचन 14
जो कोई
भी जिस
किसी भी देवता की
पूजा
विश्वास के
साथ करने
की इच्छा रखता
है
मैं उसका विश्वास उसी देवता में
दृढ कर
देता हूँ।
वचन 15
लोग आपके अपमान के
बारे में
हमेशा बात
करेंगे
सम्मानित व्यक्ति
के लिए
अपमान मृत्यु से
भी बदतर
है।
वचन 16
हम जो देखते हैं वो हम हैं
और हम
जो हैं
हम उसी
वस्तु को
निहारते हैं
इसलिए जीवन
मे हमेशा अच्छी और सकारत्मक चीज़ो
को देखें
और सोचें।
वचन 17
केवल मन ही
किसी का मित्र और शत्रु होता
है।
वचन 18
जो चीज
हमारे हाथ में नहीं
है
उसके विषय
में चिंता करके
कोई फायदा नहीं।
वचन 19
हे अर्जुन!
जब जब
संसार में धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती
है
तब – तब अच्छे लोगों
की रक्षा, दुष्टों
का पतन,
और धर्म
की स्थापना करने
के लिए
मैं हर
युग में अवतरित होता
हूँ।
वचन 20
श्रेष्ठ मनुष्य
जैसा आचरण करता
है
दूसरे लोग
भी वैसा
ही आचरण
करते हैं।
वह जो प्रमाण देता
है
जनसमुदाय उसी
का अनुसरण करता
है।
वचन 21
दुःख से
जिसका मन परेशान नहीं
होता
सुख की
जिसको आकांक्षा नहीं
होती
तथा जिसके
मन में राग, भय और क्रोध नष्ट
हो गए
हैं
ऐसा मुनि आत्मज्ञानी कहलाता
है।
वचन 22
जो ज्ञान और कर्म को
एक रूप
में देखता
है
वही सही मायने में
देखता है.
वचन 23
हर व्यक्ति का विश्वास उसकी प्रकृति के अनुसार होता है।
वचन 24
जन्म लेने
वाले के
लिए मृत्यु उतनी
ही निश्चित
है
जितना कि मृत होने
वाले के
लिए जन्म लेना
इसलिए जो
अपरिहार्य है
उस पर शोक मत
करो।
वचन 25
भगवान या
परमात्मा की शांति उनके
साथ होती
है
जिसके मन और आत्मा में
एकता हो
जो इच्छा और क्रोध से
मुक्त हो
जो अपने
खुद की आत्मा को
सही मायने
में जानता
हो।
वचन 26
सभी अच्छे
काम छोड़ कर
बस भगवान
में पूर्ण
रूप से समर्पित हो
जाओ
मैं तुम्हे
सभी पापों
से मुक्त कर
दूंगा, शोक मत
करो।
वचन 27
किसी और
का काम पूर्णता से
करने से
कहीं अच्छा
है कि अपना काम
करें
भले ही
उसे अपूर्णता से
करना पड़े।
वचन 28
प्रबुद्ध व्यक्ति
के लिए
गंदगी का
ढेर, पत्थर, और सोना
सभी समान
हैं।
वचन 29
मैं सभी
प्राणियों को सामान रूप
से देखता
हूँ
ना कोई
मुझे कम
प्रिय है
ना अधिक
लेकिन जो
मेरी प्रेमपूर्वक आराधना
करते हैं
वो मेरे भीतर रहते
हैं और
मैं उनके जीवन में
आता हूँ।
वचन 30
प्रबुद्ध व्यक्ति
सिवाय ईश्वर के
किसी और
पर निर्भर नहीं
करता।
वचन 31
सन्निहित आत्मा का
अस्तित्व
अविनाशी और
अनन्त हैं,
केवल भौतिक
शरीर तथ्यात्मक रूप
से खराब
है
इसलिए हे
अर्जुन! डटे
रहो।
वचन 32
हे अर्जुन!
केवल भाग्यशाली
योद्धा ही
ऐसी जंग
लड़ने का अवसर पाते
हैं जो
स्वर्ग के
द्वार के
सामान है।
वचन 33
भगवान प्रत्येक वस्तु में है और सबके ऊपर भी।
वचन 34
सदैव संदेह करने वाले व्यक्ति के लिए प्रसन्नता ना इस लोक में है ना ही कहीं और।
वचन 35
आपके सर्वलौकिक रूप
का मुझे
न प्रारंभ
न मध्य
न अंत
दिखाई दे
रहा है।
वचन 36
सभी कार्य ध्यान से
करो
करुणा द्वारा
निर्देशित किए
हुये।
वचन 37
तुम उसके
लिए शोक करते हो जो शोक करने के योग्य नहीं
हैं
और फिर
भी ज्ञान की
बातें करते
हो
बुद्धिमान व्यक्ति
ना जीवित और
ना ही मृत व्यक्ति
के लिए
शोक करते
हैं।
वचन 38
कभी ऐसा समय नहीं
था जब
मैं, तुम,या ये राजा-महाराजा
अस्तित्व में
नहीं थे
ना ही
भविष्य में
कभी ऐसा
होगा कि
हमारा अस्तित्व समाप्त
हो जाये।
वचन 39
कर्म मुझे
बांधता नहीं
क्योंकि मुझे
कर्म के प्रतिफल की
कोई इच्छा
नहीं।
वचन 40
हे अर्जुन!
हम दोनों
ने कई जन्म लिए
हैं। मुझे
याद हैं
लेकिन तुम्हें
नहीं।
वचन 41
मन की
गतिविधियों, होश,
श्वास, और
भावनाओं के
माध्यम से भगवान की शक्ति सदा
तुम्हारे साथ
है
और लगातार
तुम्हें बस
एक साधन
की तरह
प्रयोग कर
के सभी
कार्य कर
रही है।
वचन 42
जो हमेशा
मेरा स्मरण या एक-चित्त मन
से मेरा
पूजन करते
हैं
मैं व्यक्तिगत
रूप से उनके कल्याण का
उत्तरदायित्व लेता
हूँ।
वचन 43
कर्म योग वास्तव में एक परम रहस्य है।
वचन 44
इंद्रियों की
दुनिया में
कल्पना सुखों की
शुरुआत है
और अंत
भी, जो
दुख को जन्म देता
है।
वचन 45
बुद्धिमान व्यक्ति को समाज कल्याण के लिए बिना आसक्ति के काम करना चाहिए।
वचन 46
जो व्यक्ति आध्यात्मिक जागरूकता
के शिखर
तक पहुँच
चुके हैं
उनका मार्ग
है निःस्वार्थ कर्म.
जो भगवान्
के साथ
संयोजित हो
चुके हैं
उनका मार्ग
है स्थिरता
और शांति।
वचन 47
यद्यपि मैं
इस तंत्र
का रचयिता हूँ
लेकिन सभी
को यह ज्ञात होना
चाहिए कि
मैं कुछ
नहीं करता
और मैं अनंत हूँ।
वचन 48
जब वे अपने कार्य में आनंद खोज लेते हैं तब वे पूर्णता प्राप्त करते हैं।
वचन 49
वह जो
सभी इच्छाएं त्याग
देता है
मैं और मेरा की
लालसा और
भावना से
मुक्त हो
जाता है
उसे शांति प्राप्त
होती है।
वचन 50
मेरे लिए
ना कोई घृणित है
ना प्रिय
किन्तु जो
व्यक्ति भक्ति
के साथ
मेरी पूजा करते
हैं
वो मेरे साथ हैं
और मैं
भी उनके साथ हूँ।
वचन 51
जो इस
लोक में
अपने काम
की सफलता की
कामना रखते
हैं
वे देवताओं
का पूजन करें।
वचन 52
मैं ऊष्मा देता
हूँ
मैं वर्षा
करता हूँ
मैं वर्षा
रोकता भी
हूँ
मैं अमरत्व
भी हूँ
और मृत्यु भी
मैं ही
हूँ।
वचन 53
बुरे कर्म करने
वाले
सबसे नीच
व्यक्ति जो
गलत प्रवित्तियों से जुड़े हुए हैं
और जिनकी बुद्धि माया
ने हर
ली है
वो मेरी पूजा या
मुझे पाने
का प्रयास
नहीं करते।
वचन 54
वह जो
इस ज्ञान में
विश्वास नहीं
रखते
मुझे प्राप्त
किये बिना जन्म और मृत्यु के
चक्र का
अनुगमन करते
हैं
वचन 55
हे अर्जुन!
मैं भूत,
वर्तमान और
भविष्य के
सभी प्राणियों
को जानता
हूँ
किन्तु वास्तविकता में
कोई मुझे
नहीं जानता।
वचन 56
स्वर्ग प्राप्त
करने और
वहां कई
वर्षों तक
वास करने
के पश्चात
एक असफल योगी का
पुन: एक पवित्र
और समृद्ध
कुटुंब में
जन्म होता
है।
वचन 57
निर्माण केवल पहले से मौजूद चीजों का प्रक्षेपण है।
वचन 58
मैं सभी प्राणियों के ह्रदय में विद्यमान हूँ।
वचन 59
ऐसा कुछ
भी नहीं, चेतन या अचेतन
जो मेरे
बिना अस्तित्व मे
हो सकता
हो।
वचन 60
स्वार्थ से
भरा कार्य
इस दुनिया
को क़ैद मे
रख देगा
अपने जीवन
में स्वार्थ
को दूर रखे
बिना किसी
व्यक्तिगत लाभ के।
वचन 61
अपने अनिवार्य कार्य
करो
क्योंकि वास्तव
में कार्य
करना
निष्क्रियता से
बेहतर है।
वचन 62
इस जीवन में ना कुछ खोता है ना व्यर्थ होता है।
वचन 63
उससे मत डरो जो वास्तविक नहीं
है
क्योंकि वह
ना कभी
था ना
कभी होगा
जो वास्तविक
है वो
हमेशा था
और उसे
कभी नष्ट नहीं
किया जा
सकता।
वचन 64
अप्राकृतिक कर्म बहुत तनाव पैदा करता है।
वचन 65
मैं उन्हें ज्ञान देता हूँ जो सदा मुझसे जुड़े रहते हैं और जो मुझसे प्रेम करते हैं।
वचन 66
मेरी कृपा
से कोई सभी कर्तव्यों का
निर्वाह करते
हुए भी
बस मेरी
शरण में
आकर अनंत अविनाशी निवास
को प्राप्त
करता है।
वचन 67
जो कार्य में निष्क्रियता
और निष्क्रियता में कार्य देखता
है
वह एक बुद्धिमान व्यक्ति
है।
वचन 68
मैं धरती
की मधुर सुगंध
हूँ,
मैं अग्नि
की ऊष्मा
हूँ
सभी जीवित
प्राणियों का जीवन और सन्यासियों का
आत्मसंयम हूँ।
वचन 69
वह जो वास्तविकता में
मेरे उत्कृष्ट
जन्म और
गतिविधियों को
समझता है
वह शरीर
त्यागने के
बाद पुनः जन्म नहीं
लेता और
मेरे धाम को प्राप्त
होता है।
वचन 70
कर्म उसे नहीं बांधता जिसने काम का त्याग कर दिया है।
वचन 71
मैं समय हूँ, सबका नाशक
मैं आया
हूँ दुनिया
का उपभोग करने
के लिए।
वचन 72
व्यक्ति जो चाहे बन
सकता है
यदि वह
विश्वास के
साथ इच्छित
वस्तु पर लगातार चिंतन
करे।
वचन 73
यह बड़े
ही शोक की बात है
कि हम
लोग बड़ा
भारी पाप
करने का निश्चय कर
बैठते हैं
तथा राज्य
और सुख
के लोभ
से अपने
स्वजनों का नाश करने
को तैयार
हैं।
वचन 74
हे अर्जुन!
विषम परिस्थितियों में कायरता को
प्राप्त करना
श्रेष्ठ मनुष्यों
के आचरण के
विपरीत है।
ना तो
ये स्वर्ग
प्राप्ति का साधन है
और ना
ही इससे
कीर्ति प्राप्त
होगी।
वचन 75
कर्म ही पूजा है।
वचन 76
हे अर्जुन!
तुम ज्ञानियों की
तरह बात
करते हो
लेकिन जिनके
लिए शोक नहीं करना
चाहिए
उनके लिए
शोक करते
हो।
मृत या जीवित, ज्ञानी
किसी के
लिए शोक
नहीं करते।
वचन 77
जैसे इसी
जन्म में जीवात्मा बाल,
युवा और
वृद्ध शरीर
को प्राप्त
करती है।
वैसे ही
जीवात्मा मरने
के बाद
भी नया
शरीर प्राप्त
करती है।
इसलिए वीर
पुरुष को
मृत्यु से घबराना नहीं
चाहिए।
वचन 78
न यह
शरीर तुम्हारा है,
न तुम
शरीर के
हो।
यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से
मिलकर बना
है और
इसी में
मिल जायेगा।
परन्तु आत्मा स्थिर है
–
फिर तुम क्या हो?
वचन 79
मैं ही
सबकी उत्पत्ति का
कारण हूँ
और मुझसे
ही जगत का होता
है।
वचन 80
आत्मा ना
कभी जन्म लेती
है और
ना मरती ही
है।
शरीर का
नाश होने
पर भी
इसका नाश नहीं होता।
वचन 81
तुम अपने
आपको भगवान
को अर्पित करो।
यही सबसे
उत्तम सहारा
है जो
इसके सहारे
को जानता
है वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा
मुक्त रहता
है।
वचन 82
जैसे मनुष्य
अपने पुराने वस्त्रों को
उतारकर दूसरे
नए वस्त्र
धारण करता
है
वैसे ही
जीव मृत्यु
के बाद
अपने पुराने शरीर को
त्यागकर नया
शरीर प्राप्त
करता है।
वचन 83
शस्त्र इस
आत्मा को काट नहीं
सकते
अग्नि इसको जला नहीं
सकती
जल इसको गीला नहीं
कर सकता
और वायु इसे सुखा नहीं
सकती।
वचन 84
परिवर्तन संसार
का नियम
है।
जिसे तुम मृत्यु समझते
हो, वही
तो जीवन है।
एक क्षण
में तुम
करोड़ों के स्वामी बन
जाते हो
दूसरे ही
क्षण में
तुम दरिद्र हो
जाते हो।
मेरा-तेरा,
छोटा-बड़ा,
अपना-पराया,
मन से मिटा दो,
फिर सब
तुम्हारा है,
तुम सबके
हो।
वचन 85
हे अर्जुन!
सभी प्राणी
जन्म से
पहले अप्रकट थे
और मृत्यु
के बाद
फिर अप्रकट हो
जायेंगे।
केवल जन्म
और मृत्यु
के बीच प्रकट दिखते
हैं, फिर
इसमें शोक
करने की
क्या बात
है?
वचन 86
सम्मानित व्यक्ति के लिए अपमान मृत्यु से भी बढ़कर है।
वचन 87
जो हुआ,
वह अच्छा हुआ
जो हो
रहा है,
वह अच्छा हो
रहा है
जो होगा,
वह भी अच्छा ही होगा
तुम भूतकाल
का पश्चाताप न
करो।
भविष्य की चिन्ता न
करो। वर्तमान
चल रहा
है।
वचन 88
जो व्यक्ति संदेह करता है उसे कही भी ख़ुशीनहीं मिलती
वचन 89
सुख – दुःख,
लाभ – हानि
और जीत
–
हार की
चिंता ना
करके
मनुष्य को
अपनी शक्ति
के अनुसार कर्तव्य - कर्म करना
चाहिए।
ऐसे भाव
से कर्म
करने पर
मनुष्य को पाप नहीं
लगता।
वचन 90
खाली हाथ
आये और
खाली हाथ
वापस चले।
जो आज तुम्हारा है,
कल और
किसी का
था, परसों
किसी और
का होगा
तुम इसे
अपना समझ
कर मग्न
हो रहे
हो।
बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है।
वचन 91
जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है।
वचन 92
तुम्हारा क्या
गया, जो
तुम रोते हो?
तुम क्या
लाए थे,
जो तुमने खो दिया?
तुमने क्या
पैदा किया
था, जो नाश हो
गया?
न तुम
कुछ लेकर
आये, जो
लिया यहीं
से लिया।
जो दिया,
यहीं पर
दिया।
जो लिया,
इसी (भगवान)
से लिया।
जो दिया,
इसी को
दिया।
वचन 93
केवल कर्म करना
ही मनुष्य
के वश में है
कर्मफल नहीं।
इसलिए तुम कर्मफल की
आशक्ति में
ना फंसो
तथा अपने
कर्म का त्याग भी
ना करो
वचन 94
जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी
दलदल को
पार कर
जाएगी
उस समय
तुम शास्त्र
से सुने
गए और
सुनने योग्य
वस्तुओं से
भी वैराग्य प्राप्त
करोगे।
वचन 95
जो भी
मनुष्य अपने
जीवन अध्यात्मिक ज्ञान
के चरणों
के लिए
दृढ़ संकल्पो
में स्थिर
हैं
वह समान्य
रूप से
संकटो के
आक्रमण को
सहन कर
सकते हैं
और निश्चित
रूप से खुशियाँ और
मुक्ति पाने
के पात्र
हैं।
वचन 96
हे कुंतीनंदन!
संयम का
प्रयत्न करते
हुए ज्ञानी
मनुष्य के मन को
भी चंचल
इन्द्रियां बलपूर्वक
हर लेती
हैं।
जिसकी इन्द्रियां वश में
होती हैं
उसकी बुद्धि स्थिर होती
है।
वचन 97
विषयों का चिंतन करने
से विषयों
की आसक्ति होती
है।
आसक्ति से इच्छा उत्पन्न
होती है
और इच्छा
से क्रोध होता
है। क्रोध
से सम्मोहन और अविवेक उत्पन्न
होता है
सम्मोहन से
मन भ्रष्ट हो
जाता है।
मन नष्ट
होने पर
बुद्धि का नाश होता
है
और बुद्धि
का नाश
होने से
मनुष्य का पतन होता
है।
वचन 98
हर काम का फल मिलता है - 'इस जीवन में ना कुछ खोता है ना व्यर्थ होता है
वचन 99
क्यों व्यर्थ
की चिंता करते
हो?
किससे व्यर्थ डरते हो?
कौन तुम्हें मार सक्ता
है?
आत्मा ना पैदा होती
है, न मरती है।
वचन 100
शांति से
सभी दुःखों का
अंत हो
जाता है
और शांतचित्त
मनुष्य की बुद्धि शीघ्र
ही स्थिर
होकर परमात्मा से
युक्त हो
जाती है।
वचन 101
जो कुछ
भी तू करता है
उसे भगवान
को अर्पण करता
चल।
ऐसा करने
से सदा जीवन-मुक्ति का
आनंद अनुभव
करेगा।
वचन 102
जैसे जल
में तैरती नाव को तूफान
उसे अपने
लक्ष्य से
दूर ले
जाता है
वैसे ही इन्द्रिय सुख मनुष्य को गलत रास्ते
की ओर
ले जाता
है।
वचन 103
जो मनुष्य
सब कामनाओं तो
त्यागकर
इच्छा रहित,
ममता रहित
तथा अहंकार
रहित होकर विचरण करता
है
वही शांति प्राप्त
करता है।
वचन 104
मनुष्य कर्म
को त्यागकर
कर्म के
बंधन से मुक्त नहीं
होता।
केवल कर्म
के त्याग
मात्र से
ही सिद्धि प्राप्त
नहीं होती।
कोई भी
मनुष्य एक
क्षण भी
बिना कर्म किये
नहीं रह
सकता।
वचन 105
मन अशांत
है और
उसे नियंत्रित करना
कठिन है,
लेकिन अभ्यास से
इसे वश
में किया
जा सकता
है।
वचन 106
जो मनुष्य
बिना आलोचना किये
श्रद्धापूर्वक मेरे
उपदेश का
सदा पालन
करते हैं
वे कर्मों
के बंधन
से मुक्त हो
जाते हैं।
वचन 107
इन्द्रियां, मन और बुद्धि काम
के निवास
स्थान कहे
जाते हैं।
यह काम
इन्द्रियां, मन
और बुद्धि
को अपने
वश में
करके ज्ञान को
ढककर मनुष्य
को भटका देता
है।
वचन 108
इन्द्रियां शरीर
से श्रेष्ठ
कही जाती
हैं
इन्द्रियों से
परे मन है और मन से परे बुद्धि है
और आत्मा बुद्धि
से भी
अत्यंत श्रेष्ठ
है।
वचन 109
अप्राकृतिक कर्म बहुत तनाव पैदा करता है
वचन 110
काम, क्रोध
और लोभ
ये जीव
को नरक की ओर ले जाने
वाले तीन द्वार हैं
इसलिए इन
तीनों का त्याग करना
चाहिए।
वचन 111
हे अर्जुन!
मेरे जन्म और कर्म दिव्य
हैं
इसे जो
मनुष्य भली
भांति जान
लेता है
उसका मरने
के बाद पुनर्जन्म नहीं
होता तथा
वह मेरे
लोक, परमधाम
को प्राप्त
होता है।
वचन 112
हे अर्जुन!
जो भक्त
जिस किसी
भी मनोकामना से
मेरी पूजा
करते हैं
मैं उनकी
मनोकामना की पूर्ति करता
हूँ।
वचन 113
जो आशा
रहित है
जिसके मन
और इन्द्रियां वश में हैं
जिसने सब
प्रकार के
स्वामित्व का परित्याग कर
दिया है
ऐसा मनुष्य
शरीर से
कर्म करते
हुए भी
पाप को
प्राप्त नहीं
होता और
कर्म बंधन
से मुक्त हो
जाता है।
वचन 114
अपने आप
जो कुछ
भी प्राप्त हो
उसमें संतुष्ट
रहने वाला,
ईर्ष्या से
रहित, सफलता
और असफलता
में समभाव
वाला कर्मयोगी
कर्म करता
हुआ भी
कर्म के
बन्धनों से
नहीं बंधता
है।
वचन 115
हे अर्जुन!
जैसे प्रज्वलित
अग्नि लकड़ी
को जला देती है
वैसे ही
ज्ञानरूपी अग्नि
कर्म के
सारे बंधनों
को भस्म कर
देती है।
वचन 116
हे अर्जुन!
तुम सदा
मेरा स्मरण करो और अपना
कर्तव्य करो।
इस तरह
मुझमें अर्पण
किये मन
और बुद्धि
से युक्त
होकर निःसंदेह
तुम मुझको
ही प्राप्त होगे।
वचन 117
सभी प्राणी
मेरे लिए समान हैं
न मेरा
कोई अप्रिय
है और
न प्रिय
परन्तु जो
श्रद्धा और
प्रेम से
मेरी उपासना करते
हैं
वे मेरे
समीप रहते
हैं और
मैं भी
उनके निकट रहता
हूँ।
वचन 118
यदि कोई
बड़े से
बड़ा दुराचारी भी
अनन्य भक्ति
भाव से
मुझे भजता है
तो उसे
भी साधु
ही मानना
चाहिए और
वह शीघ्र
ही धर्मात्मा हो
जाता है
तथा परम शांति को
प्राप्त होता
है।
वचन 119
हे अर्जुन!
तुम यह
निश्चयपूर्वक सत्य मानो
कि मेरे
भक्त का
कभी भी विनाश या पतन नहीं
होता है।
वचन 120
अपने कर्तव्य का पालन करना जो की प्रकृति द्वारा निर्धारित किया हुआ हो, वह कोई पाप नहीं है।
वचन 121
अपने परम भक्तों, जो हमेशा मेरा स्मरण या एक-चित्त मन से मेरा पूजन करते हैं, मैं व्यक्तिगत रूप से उनके कल्याण का उत्तरदायित्व लेता हूँ।
वचन 122
आत्म-ज्ञान की तलवार से काटकर अपने ह्रदय से अज्ञान के संदेह को अलग कर दो। अनुशाषित रहो। उठो।
वचन 123
किसी दुसरे के जीवन के साथ पूर्ण रूप से जीने से बेहतर है की हम अपने स्वयं के भाग्य के अनुसार अपूर्ण जियें।
वचन 124
खाली हाथ
आये और
खाली हाथ
वापस चले।
जो आज
तुम्हारा है,
कल और
किसी का
था, परसों
किसी और
का होगा।
तुम इसे
अपना समझ
कर मग्न
हो रहे
हो। बस
यही प्रसन्नता तुम्हारे
दु:खों
का कारण
है।
वचन 125
चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, चिंता से रहित होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है।
वचन 126
जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है।
वचन 127
जिन्हें वेद के मधुर संगीतमयी वाणी से प्रेम है, उनके लिए वेदों का भोग ही सब कुछ है।
वचन 128
जिस समय इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है।
वचन 129
जो कार्य में निष्क्रियता और निष्क्रियता में कार्य देखता है वह एक बुद्धिमान व्यक्ति है।
वचन 130
जो कुछ
भी तू
करता है,
उसे भगवान
को अर्पण
करता चल।
ऐसा करने
से सदा
जीवन-मुक्त
का आनंद अनुभव
करेगा।
वचन 131
जो न
कभी हर्षित
होता है,
न द्वेष
करता है,
न शोक
करता है,
न कामना
करता है
तथा जो
शुभ और
अशुभ सम्पूर्ण
कर्मों का
त्यागी है-
वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको
प्रिय है।
वचन 132
जो भी मनुष्य अपने जीवन अध्यात्मिक ज्ञान के चरणों के लिए दृढ़ संकल्पों में स्थिर है, वह सामान रूप से संकटों के आकर्मण को सहन कर सकते हैं, और निश्चित रूप से यह व्यक्ति खुशियाँ और मुक्ति पाने का पात्र है।
वचन 133
जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है।
वचन 134
जो मनुष्य
सभी इच्छाओं व कामनाओं को
त्याग कर
ममता रहित
और अहंकार
रहित होकर
अपने कर्तव्यों का
पालन करता
है, उसे
ही शांति
प्राप्त होती
है।
वचन 135
जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है।
वचन 136
जो व्यक्ति आध्यात्मिक जागरूकता के शिखर तक पहुँच चुके हैं, उनका मार्ग है निःस्वार्थ कर्म। जो भगवान् के साथ संयोजित हो चुके हैं उनका मार्ग है स्थिरता और शांति।
वचन 137
जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का अंत होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है।
वचन 138
ज्ञानी व्यक्ति को कर्म के प्रतिफल की अपेक्षा कर रहे अज्ञानी व्यक्ति के दीमाग को अस्थिर नहीं करना चाहिए।
वचन 139
न मैं यह शरीर हूँ और न यह शरीर मेरा है, मैं ज्ञानस्वरुप हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला जीवन मुक्ति को प्राप्त करता है। वह किये हुए (भूतकाल) और न किये हुए (भविष्य के) कर्मों का स्मरण नहीं करता है।
वचन 140
जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।
वचन 141
बुद्धिमान को अपनी चेतना को एकजुट करना चाहिए और फल के लिए इच्छा/ लगाव छोड़ देना चाहिए।
वचन 142
भगवान या परमात्मा की शांति उनके साथ होती है जिसके मन और आत्मा में एकता/सामंजस्य हो, जो इच्छा और क्रोध से मुक्त हो, जो अपने स्वयं/खुद के आत्मा को सही मायने में जानते हों।
वचन 143
मन अशांत
है और
उसे नियंत्रित करना
कठिन है,
लेकिन अभ्यास से
इसे वश
में किया
जा सकता
है।
वचन 144
मैं आत्मा हूँ, जो सभी प्राणियों के हृदय/दिल से बंधा हुआ हूँ। मैं साथ ही शुरुआत हूँ, मध्य हूँ और समाप्त भी हूँ सभी प्राणियों का।
वचन 145
मेरे लिए
ना कोई
घृणित है
ना प्रिय।
किन्तु जो
व्यक्ति भक्ति के
साथ मेरी पूजा करते
हैं, वो
मेरे साथ
हैं और
मैं भी
उनके साथ
हूँ।
वचन 146
मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओं में अग्नि हूँ और शिखरवाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूँ।
वचन 147
मैं धरती की मधुर सुगंध हूँ। मैं अग्नि की ऊष्मा हूँ, सभी जीवित प्राणियों का जीवन और सन्यासियों का आत्मसंयम हूँ।
वचन 148
वह जो इस ज्ञान में विश्वास नहीं रखते, मुझे प्राप्त किये बिना जन्म और मृत्यु के चक्र का अनुगमन करते हैं।
वचन 149
सभी वेदों में से मैं साम वेद हूँ, सभी देवों में से मैं इंद्र हूँ, सभी समझ और भावनाओं में से मैं मन हूँ, सभी जीवित प्राणियों में मैं चेतना हूँ।
वचन 150
स्वार्थ से भरा हुआ कार्य इस दुनिया को कैद में रख देगा। अपने जीवन से स्वार्थ को दूर रखें, बिना किसी व्यक्तिगत लाभ के।
वचन 151
पृथ्वी में
जिस प्रकार मौसम में
परिवर्तन आता
है उसी
प्रकार जीवन में
भी सुख-दुख आता जाता
रहता है।