Monday 30 March 2020

Samanya Hindi | Hindi Grammar GK | हिन्दी व्याकरण सामान्य ज्ञान प्रश्न उत्तर Part-2

हिन्दी व्याकरण 
सामान्य ज्ञान प्रश्न उत्तर

Samanya Hindi | Hindi Grammar GK

Part-2



संधि एवं संधि विच्छेद



संधि

संधि दो शब्दों से मिलकर बना है – सम् + धि। जिसका अर्थ होता है ‘मिलना ‘। हमारी हिंदी भाषा में संधि के द्वारा पुरे शब्दों को लिखने की परम्परा नहीं है। लेकिन संस्कृत में संधि के बिना कोई काम नहीं चलता। संस्कृत की व्याकरण की परम्परा बहुत पुरानी है। संस्कृत भाषा को अच्छी तरह जानने के लिए व्याकरण को पढना जरूरी है। शब्द रचना में भी संधियाँ काम करती हैं। जब दो शब्द मिलते हैं तो पहले शब्द की अंतिम ध्वनि और दूसरे शब्द की पहली ध्वनि आपस में मिलकर जो परिवर्तन लाती हैं उसे संधि कहते हैं। अथार्त संधि किये गये शब्दों को अलग-अलग करके पहले की तरह करना ही संधि विच्छेद कहलाता है। अथार्त जब दो शब्द आपस में मिलकर कोई तीसरा शब्द बनती हैं तब जो परिवर्तन होता है , उसे संधि कहते हैं। उदहारण :- हिमालय = हिम + आलय , सत् + आनंद =सदानंद। संधि के प्रकार :- संधि तीन प्रकार की होती हैं :- ● स्वर संधि ● व्यंजन संधि ● विसर्ग संधि


स्वर संधि

जब स्वर के साथ स्वर का मेल होता है तब जो परिवर्तन होता है उसे स्वर संधि कहते हैं। हिंदी में स्वरों की संख्या ग्यारह होती है। बाकी के अक्षर व्यंजन होते हैं। जब दो स्वर मिलते हैं जब उससे जो तीसरा स्वर बनता है उसे स्वर संधि कहते हैं। उदहारण :- विद्या + आलय = विद्यालय। स्वर संधि पांच प्रकार की होती हैं :- (क) दीर्घ संधि (ख) गुण संधि (ग) वृद्धि संधि (घ) यण संधि (ड)अयादि संधि ★ दीर्घ संधि :- जब ( अ , आ ) के साथ ( अ , आ ) हो तो ‘ आ ‘ बनता है , जब ( इ , ई ) के साथ ( इ , ई ) हो तो ‘ ई ‘ बनता है , जब ( उ , ऊ ) के साथ ( उ , ऊ ) हो तो ‘ ऊ ‘ बनता है। अथार्त सूत्र – अक: सवर्ण – दीर्घ: मतलब अक प्रत्याहार के बाद अगर सवर्ण हो तो दो मिलकर दीर्घ बनते हैं। दूसरे शब्दों में हम कहें तो जब दो सुजातीय स्वर आस – पास आते हैं तब जो स्वर बनता है उसे सुजातीय दीर्घ स्वर कहते हैं , इसी को स्वर संधि की दीर्घ संधि कहते हैं। इसे ह्रस्व संधि भी कहते हैं। उदहारण :- धर्म + अर्थ = धर्मार्थ पुस्तक + आलय = पुस्तकालय विद्या + अर्थी = विद्यार्थी रवि + इंद्र = रविन्द्र गिरी +ईश = गिरीश मुनि + ईश =मुनीश मुनि +इंद्र = मुनींद्र भानु + उदय = भानूदय वधू + ऊर्जा = वधूर्जा विधु + उदय = विधूदय भू + उर्जित = भुर्जित। ★ गुण संधि :- जब ( अ , आ ) के साथ ( इ , ई ) हो तो ‘ ए ‘ बनता है , जब ( अ , आ )के साथ ( उ , ऊ ) हो तो ‘ ओ ‘बनता है , जब ( अ , आ ) के साथ ( ऋ ) हो तो ‘ अर ‘ बनता है। उसे गुण संधि कहते हैं। उदहारण :- नर + इंद्र + नरेंद्र सुर + इन्द्र = सुरेन्द्र ज्ञान + उपदेश = ज्ञानोपदेश भारत + इंदु = भारतेन्दु देव + ऋषि = देवर्षि सर्व + ईक्षण = सर्वेक्षण ★ वृद्धि संधि :- जब ( अ , आ ) के साथ ( ए , ऐ ) हो तो ‘ ऐ ‘ बनता है और जब ( अ , आ ) के साथ ( ओ , औ )हो तो ‘ औ ‘ बनता है। उसे वृधि संधि कहते हैं। उदहारण :- मत+एकता = मतैकता एक +एक =एकैक धन + एषणा = धनैषणा सदा + एव = सदैव महा + ओज = महौज ★ यण संधि क्या होती है :- जब ( इ , ई ) के साथ कोई अन्य स्वर हो तो ‘ य ‘ बन जाता है , जब ( उ , ऊ ) के साथ कोई अन्य स्वर हो तो ‘ व् ‘ बन जाता है , जब ( ऋ ) के साथ कोई अन्य स्वर हो तो ‘ र ‘ बन जाता है। यण संधि के तीन प्रकार के संधि युक्त्त पद होते हैं। (1) य से पूर्व आधा व्यंजन होना चाहिए। (2) व् से पूर्व आधा व्यंजन होना चाहिए। (3) शब्द में त्र होना चाहिए। यण स्वर संधि में एक शर्त भी दी गयी है कि य और त्र में स्वर होना चाहिए और उसी से बने हुए शुद्ध व् सार्थक स्वर को + के बाद लिखें। उसे यण संधि कहते हैं। उदहारण :- इति + आदि = इत्यादि परी + आवरण = पर्यावरण अनु + अय = अन्वय सु + आगत = स्वागत अभी + आगत = अभ्यागत ★ अयादि संधि क्या होती है :- जब ( ए , ऐ , ओ , औ ) के साथ कोई अन्य स्वर हो तो ‘ ए – अय ‘ में , ‘ ऐ – आय ‘ में , ‘ ओ – अव ‘ में, ‘ औ – आव ‘ ण जाता है। य , व् से पहले व्यंजन पर अ , आ की मात्रा हो तो अयादि संधि हो सकती है लेकिन अगर और कोई विच्छेद न निकलता हो तो + के बाद वाले भाग को वैसा का वैसा लिखना होगा। उसे अयादि संधि कहते हैं। उदहारण :- ने + अन = नयन नौ + इक = नाविक भो + अन = भवन पो + इत्र = पवित्र


व्यंजन संधि

जब व्यंजन को व्यंजन या स्वर के साथ मिलाने से जो परिवर्तन होता है , उसे व्यंजन संधि कहते हैं। उदहारण :- दिक् + अम्बर = दिगम्बर अभी + सेक = अभिषेक व्यंजन संधि के 13 नियम होते हैं :- (1) जब किसी वर्ग के पहले वर्ण क्, च्, ट्, त्, प् का मिलन किसी वर्ग के तीसरे या चौथे वर्ण से या य्, र्, ल्, व्, ह से या किसी स्वर से हो जाये तो क् को ग् , च् को ज् , ट् को ड् , त् को द् , और प् को ब् में बदल दिया जाता है अगर स्वर मिलता है तो जो स्वर की मात्रा होगी वो हलन्त वर्ण में लग जाएगी लेकिन अगर व्यंजन का मिलन होता है तो वे हलन्त ही रहेंगे। उदहारण :- ★ क् के ग् में बदलने के उदहारण – दिक् + अम्बर = दिगम्बर दिक् + गज = दिग्गज वाक् +ईश = वागीश ★ च् के ज् में बदलने के उदहारण :- अच् +अन्त = अजन्त अच् + आदि =अजादी ★ ट् के ड् में बदलन के उदहारण :- षट् + आनन = षडानन षट् + यन्त्र = षड्यन्त्र षड्दर्शन = षट् + दर्शन षड्विकार = षट् + विकार षडंग = षट् + अंग ★ त् के द् में बदलने के उदहारण :- तत् + उपरान्त = तदुपरान्त सदाशय = सत् + आशय तदनन्तर = तत् + अनन्तर उद्घाटन = उत् + घाटन जगदम्बा = जगत् + अम्बा अप् + द = अब्द अब्ज = अप् + ज (2) यदि किसी वर्ग के पहले वर्ण (क्, च्, ट्, त्, प्) का मिलन न या म वर्ण ( ङ,ञ ज, ण, न, म) के साथ हो तो क् को ङ्, च् को ज्, ट् को ण्, त् को न्, तथा प् को म् में बदल दिया जाता है। उदहारण :- ★ क् के ङ् में बदलने के उदहारण :- वाक् + मय = वाङ्मय दिङ्मण्डल = दिक् + मण्डल प्राङ्मुख = प्राक् + मुख ★ ट् के ण् में बदलने के उदहारण :- षट् + मास = षण्मास षट् + मूर्ति = षण्मूर्ति षण्मुख = षट् + मुख ★ त् के न् में बदलने के उदहारण :- उत् + नति = उन्नति जगत् + नाथ = जगन्नाथ उत् + मूलन = उन्मूलन ★ प् के म् में बदलने के उदहारण :- अप् + मय = अम्मय (3) जब त् का मिलन ग, घ, द, ध, ब, भ, य, र, व से या किसी स्वर से हो तो द् बन जाता है। म के साथ क से म तक के किसी भी वर्ण के मिलन पर ‘ म ‘ की जगह पर मिलन वाले वर्ण का अंतिम नासिक वर्ण बन जायेगा। उदहारण :- ★ म् + क ख ग घ ङ के उदहारण :- सम् + कल्प = संकल्प/सटड्ढन्ल्प सम् + ख्या = संख्या सम् + गम = संगम शंकर = शम् + कर ★ म् + च, छ, ज, झ, ञ के उदहारण :- सम् + चय = संचय किम् + चित् = किंचित सम् + जीवन = संजीवन ★ म् + ट, ठ, ड, ढ, ण के उदहारण :- दम् + ड = दण्ड/दंड खम् + ड = खण्ड/खंड ★ म् + त, थ, द, ध, न के उदहारण :- सम् + तोष = सन्तोष/संतोष किम् + नर = किन्नर सम् + देह = सन्देह ★ म् + प, फ, ब, भ, म के उदहारण :- सम् + पूर्ण = सम्पूर्ण/संपूर्ण सम् + भव = सम्भव/संभव ★ त् + ग , घ , ध , द , ब , भ ,य , र , व् के उदहारण :- सत् + भावना = सद्भावना जगत् + ईश =जगदीश भगवत् + भक्ति = भगवद्भक्ति तत् + रूप = तद्रूपत सत् + धर्म = सद्धर्म (4) त् से परे च् या छ् होने पर च, ज् या झ् होने पर ज्, ट् या ठ् होने पर ट्, ड् या ढ् होने पर ड् और ल होने पर ल् बन जाता है। म् के साथ य, र, ल, व, श, ष, स, ह में से किसी भी वर्ण का मिलन होने पर ‘म्’ की जगह पर अनुस्वार ही लगता है। ★ म + य , र , ल , व् , श , ष , स , ह के उदहारण :- सम् + रचना = संरचना सम् + लग्न = संलग्न सम् + वत् = संवत् सम् + शय = संशय ★ त् + च , ज , झ , ट , ड , ल के उदहारण :- उत् + चारण = उच्चारण सत् + जन = सज्जन उत् + झटिका = उज्झटिका तत् + टीका =तट्टीका उत् + डयन = उड्डयन उत् +लास = उल्लास (5)जब त् का मिलन अगर श् से हो तो त् को च् और श् को छ् में बदल दिया जाता है। जब त् या द् के साथ च या छ का मिलन होता है तो त् या द् की जगह पर च् बन जाता है। उदहारण :- उत् + चारण = उच्चारण शरत् + चन्द्र = शरच्चन्द्र उत् + छिन्न = उच्छिन्न ★ त् + श् के उदहारण :- उत् + श्वास = उच्छ्वास उत् + शिष्ट = उच्छिष्ट सत् + शास्त्र = सच्छास्त्र (6) जब त् का मिलन ह् से हो तो त् को द् और ह् को ध् में बदल दिया जाता है। त् या द् के साथ ज या झ का मिलन होता है तब त् या द् की जगह पर ज् बन जाता है। उदहारण :- सत् + जन = सज्जन जगत् + जीवन = जगज्जीवन वृहत् + झंकार = वृहज्झंकार ★ त् + ह के उदहारण :- उत् + हार = उद्धार उत् + हरण = उद्धरण तत् + हित = तद्धित (7) स्वर के बाद अगर छ् वर्ण आ जाए तो छ् से पहले च् वर्ण बढ़ा दिया जाता है। त् या द् के साथ ट या ठ का मिलन होने पर त् या द् की जगह पर ट् बन जाता है। जब त् या द् के साथ ‘ड’ या ढ की मिलन होने पर त् या द् की जगह पर‘ड्’बन जाता है। उदहारण :- तत् + टीका = तट्टीका वृहत् + टीका = वृहट्टीका भवत् + डमरू = भवड्डमरू ★ अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, + छ के उदहारण :- स्व + छंद = स्वच्छंद आ + छादन =आच्छादन संधि + छेद = संधिच्छेद अनु + छेद =अनुच्छेद (8) अगर म् के बाद क् से लेकर म् तक कोई व्यंजन हो तो म् अनुस्वार में बदल जाता है। त् या द् के साथ जब ल का मिलन होता है तब त् या द् की जगह पर ‘ल्’ बन जाता है। उदहारण :- उत् + लास = उल्लास तत् + लीन = तल्लीन विद्युत् + लेखा = विद्युल्लेखा ★ म् + च् , क, त, ब , प के उदहारण :- किम् + चित = किंचित किम् + कर = किंकर सम् +कल्प = संकल्प सम् + चय = संचयम सम +तोष = संतोष सम् + बंध = संबंध सम् + पूर्ण = संपूर्ण (9) म् के बाद म का द्वित्व हो जाता है। त् या द् के साथ ‘ह’ के मिलन पर त् या द् की जगह पर द् तथा ह की जगह पर ध बन जाता है। उदहारण :- उत् + हार = उद्धार/उद्धार उत् + हृत = उद्धृत/उद्धृत पद् + हति = पद्धति ★ म् + म के उदहारण :- सम् + मति = सम्मति सम् + मान = सम्मान (10) म् के बाद य्, र्, ल्, व्, श्, ष्, स्, ह् में से कोई व्यंजन आने पर म् का अनुस्वार हो जाता है।‘त् या द्’ के साथ ‘श’ के मिलन पर त् या द् की जगह पर ‘च्’ तथा ‘श’ की जगह पर ‘छ’ बन जाता है। उदहारण :- उत् + श्वास = उच्छ्वास उत् + शृंखल = उच्छृंखल शरत् + शशि = शरच्छशि ★ म् + य, र, व्,श, ल, स, के उदहारण :- सम् + योग = संयोग सम् + रक्षण = संरक्षण सम् + विधान = संविधान सम् + शय =संशय सम् + लग्न = संलग्न सम् + सार = संसार (11) ऋ, र्, ष् से परे न् का ण् हो जाता है। परन्तु चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, श और स का व्यवधान हो जाने पर न् का ण् नहीं होता। किसी भी स्वर के साथ ‘छ’ के मिलन पर स्वर तथा ‘छ’ के बीच ‘च्’ आ जाता है। उदहारण :- आ + छादन = आच्छादन अनु + छेद = अनुच्छेद शाला + छादन = शालाच्छादन स्व + छन्द = स्वच्छन्द ★ र् + न, म के उदहारण :- परि + नाम = परिणाम प्र + मान = प्रमाण (12) स् से पहले अ, आ से भिन्न कोई स्वर आ जाए तो स् को ष बना दिया जाता है। उदहारण :- वि + सम = विषम अभि + सिक्त = अभिषिक्त अनु + संग = अनुषंग ★ भ् + स् के उदहारण :- अभि + सेक = अभिषेक नि + सिद्ध = निषिद्ध वि + सम + विषम (13)यदि किसी शब्द में कही भी ऋ, र या ष हो एवं उसके साथ मिलने वाले शब्द में कहीं भी ‘न’ हो तथा उन दोनों के बीच कोई भी स्वर,क, ख ग, घ, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व में से कोई भी वर्ण हो तो सन्धि होने पर ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ हो जाता है। जब द् के साथ क, ख, त, थ, प, फ, श, ष, स, ह का मिलन होता है तब द की जगह पर त् बन जाता है। उदहारण :- राम + अयन = रामायण परि + नाम = परिणाम नार + अयन = नारायण संसद् + सदस्य = संसत्सदस्य तद् + पर = तत्पर सद् + कार = सत्कार


विसर्ग संधि

विसर्ग के बाद जब स्वर या व्यंजन आ जाये तब जो परिवर्तन होता है उसे विसर्ग संधि कहते हैं। उदहारण :- मन: + अनुकूल = मनोनुकूल नि:+अक्षर = निरक्षर नि: + पाप =निष्पाप विसर्ग संधि के 10 नियम होते हैं :- (1) विसर्ग के साथ च या छ के मिलन से विसर्ग के जगह पर ‘श्’बन जाता है। विसर्ग के पहले अगर ‘अ’और बाद में भी ‘अ’ अथवा वर्गों के तीसरे, चौथे , पाँचवें वर्ण, अथवा य, र, ल, व हो तो विसर्ग का ओ हो जाता है। उदहारण :- मनः + अनुकूल = मनोनुकूल अधः + गति = अधोगति मनः + बल = मनोबल निः + चय = निश्चय दुः + चरित्र = दुश्चरित्र ज्योतिः + चक्र = ज्योतिश्चक्र निः + छल = निश्छल विच्छेद :- तपश्चर्या = तपः + चर्या अन्तश्चेतना = अन्तः + चेतना हरिश्चन्द्र = हरिः + चन्द्र अन्तश्चक्षु = अन्तः + चक्षु (2) विसर्ग से पहले अ, आ को छोड़कर कोई स्वर हो और बाद में कोई स्वर हो, वर्ग के तीसरे, चौथे, पाँचवें वर्ण अथवा य्, र, ल, व, ह में से कोई हो तो विसर्ग का र या र् हो जाता ह। विसर्ग के साथ ‘श’ के मेल पर विसर्ग के स्थान पर भी ‘श्’ बन जाता है। दुः + शासन = दुश्शासन यशः + शरीर = यशश्शरीर निः + शुल्क = निश्शुल्क विच्छेद :- निश्श्वास = निः + श्वास चतुश्श्लोकी = चतुः + श्लोकी निश्शंक = निः + शंक निः + आहार = निराहार निः + आशा = निराशा निः + धन = निर्धन (3) विसर्ग से पहले कोई स्वर हो और बाद में च, छ या श हो तो विसर्ग का श हो जाता है। विसर्ग के साथ ट, ठ या ष के मेल पर विसर्ग के स्थान पर ‘ष्’ बन जाता है। धनुः + टंकार = धनुष्टंकार चतुः + टीका = चतुष्टीका चतुः + षष्टि = चतुष्षष्टि निः + चल = निश्चल निः + छल = निश्छल दुः + शासन = दुश्शासन (4)विसर्ग के बाद यदि त या स हो तो विसर्ग स् बन जाता है। यदि विसर्ग के पहले वाले वर्ण में अ या आ के अतिरिक्त अन्य कोई स्वर हो तथा विसर्ग के साथ मिलने वाले शब्द का प्रथम वर्ण क, ख, प, फ में से कोई भी हो तो विसर्ग के स्थान पर ‘ष्’ बन जायेगा। निः + कलंक = निष्कलंक दुः + कर = दुष्कर आविः + कार = आविष्कार चतुः + पथ = चतुष्पथ निः + फल = निष्फल विच्छेद :- निष्काम = निः + काम निष्प्रयोजन = निः + प्रयोजन बहिष्कार = बहिः + कार निष्कपट = निः + कपट नमः + ते = नमस्ते निः + संतान = निस्संतान दुः + साहस = दुस्साहस (5) विसर्ग से पहले इ, उ और बाद में क, ख, ट, ठ, प, फ में से कोई वर्ण हो तो विसर्ग का ष हो जाता है। यदि विसर्ग के पहले वाले वर्ण में अ या आ का स्वर हो तथा विसर्ग के बाद क, ख, प, फ हो तो सन्धि होने पर विसर्ग भी ज्यों का त्यों बना रहेगा। अधः + पतन = अध: पतन प्रातः + काल = प्रात: काल अन्त: + पुर = अन्त: पुर वय: क्रम = वय: क्रम विच्छेद :- रज: कण = रज: + कण तप: पूत = तप: + पूत पय: पान = पय: + पान अन्त: करण = अन्त: + करण अपवाद* भा: + कर = भास्कर नम: + कार = नमस्कार पुर: + कार = पुरस्कार श्रेय: + कर = श्रेयस्कर बृह: + पति = बृहस्पति पुर: + कृत = पुरस्कृत तिर: + कार = तिरस्कार निः + कलंक = निष्कलंक चतुः + पाद = चतुष्पाद निः + फल = निष्फल (6) विसर्ग से पहले अ, आ हो और बाद में कोई भिन्न स्वर हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है। विसर्ग के साथ त या थ के मेल पर विसर्ग के स्थान पर ‘स्’ बन जायेगा। अन्त: + तल = अन्तस्तल नि: + ताप = निस्ताप दु: + तर = दुस्तर नि: + तारण = निस्तारण विच्छेद :- निस्तेज = निः + तेज नमस्ते = नम: + ते मनस्ताप = मन: + ताप बहिस्थल = बहि: + थल निः + रोग = निरोग निः + रस = नीरस (7) विसर्ग के बाद क, ख अथवा प, फ होने पर विसर्ग में कोई परिवर्तन नहीं होता। विसर्ग के साथ ‘स’ के मेल पर विसर्ग के स्थान पर ‘स्’ बन जाता है। नि: + सन्देह = निस्सन्देह दु: + साहस = दुस्साहस नि: + स्वार्थ = निस्स्वार्थ दु: + स्वप्न = दुस्स्वप्न विच्छेद निस्संतान = नि: + संतान दुस्साध्य = दु: + साध्य मनस्संताप = मन: + संताप पुनस्स्मरण = पुन: + स्मरण अंतः + करण = अंतःकरण (8) यदि विसर्ग के पहले वाले वर्ण में ‘इ’ व ‘उ’ का स्वर हो तथा विसर्ग के बाद ‘र’ हो तो सन्धि होने पर विसर्ग का तो लोप हो जायेगा साथ ही ‘इ’ व ‘उ’ की मात्रा ‘ई’ व ‘ऊ’ की हो जायेगी। नि: + रस = नीरस नि: + रव = नीरव नि: + रोग = नीरोग दु: + राज = दूराज विच्छेद नीरज = नि: + रज नीरन्द्र = नि: + रन्द्र चक्षूरोग = चक्षु: + रोग दूरम्य = दु: + रम्य (9) विसर्ग के पहले वाले वर्ण में ‘अ’ का स्वर हो तथा विसर्ग के साथ अ के अतिरिक्त अन्य किसी स्वर के मेल पर विसर्ग का लोप हो जायेगा तथा अन्य कोई परिवर्तन नहीं होगा। अत: + एव = अतएव मन: + उच्छेद = मनउच्छेद पय: + आदि = पयआदि तत: + एव = ततएव (10) विसर्ग के पहले वाले वर्ण में ‘अ’ का स्वर हो तथा विसर्ग के साथ अ, ग, घ, ड॰, ´, झ, ज, ड, ढ़, ण, द, ध, न, ब, भ, म, य, र, ल, व, ह में से किसी भी वर्ण के मेल पर विसर्ग के स्थान पर ‘ओ’ बन जायेगा। मन: + अभिलाषा = मनोभिलाषा सर: + ज = सरोज वय: + वृद्ध = वयोवृद्ध यश: + धरा = यशोधरा मन: + योग = मनोयोग अध: + भाग = अधोभाग तप: + बल = तपोबल मन: + रंजन = मनोरंजन विच्छेद मनोनुकूल = मन: + अनुकूल मनोहर = मन: + हर तपोभूमि = तप: + भूमि पुरोहित = पुर: + हित यशोदा = यश: + दा अधोवस्त्र = अध: + वस्त्र अपवाद पुन: + अवलोकन = पुनरवलोकन पुन: + ईक्षण = पुनरीक्षण पुन: + उद्धार = पुनरुद्धार पुन: + निर्माण = पुनर्निर्माण अन्त: + द्वन्द्व = अन्तद्र्वन्द्व अन्त: + देशीय = अन्तर्देशीय अन्त: + यामी = अन्तर्यामी




अलंकार

अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – अलम + कार। यहाँ पर अलम का अर्थ होता है ‘ आभूषण। मानव समाज बहुत ही सौन्दर्योपासक है उसकी प्रवर्ती के कारण ही अलंकारों को जन्म दिया गया है। जिस तरह से एक नारी अपनी सुन्दरता को बढ़ाने के लिए आभूषणों को प्रयोग में लाती हैं उसी प्रकार भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया जाता है। अथार्त जो शब्द काव्य की शोभा को बढ़ाते हैं उसे अलंकार कहते हैं। उदाहरण :- ‘ भूषण बिना न सोहई – कविता , बनिता मित्त।’ अलंकार के भेद :- ● शब्दालंकार ● अर्थालंकार ● उभयालंकार


1. शब्दालंकार

शब्दालंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – शब्द + अलंकार। शब्द के दो रूप होते हैं – ध्वनी और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। जब अलंकार किसी विशेष शब्द की स्थिति में ही रहे और उस शब्द की जगह पर कोई और पर्यायवाची शब्द के रख देने से उस शब्द का अस्तित्व न रहे उसे शब्दालंकार कहते हैं। अर्थार्त जिस अलंकार में शब्दों को प्रयोग करने से चमत्कार हो जाता है और उन शब्दों की जगह पर समानार्थी शब्द को रखने से वो चमत्कार समाप्त हो जाये वहाँ शब्दालंकार होता है। शब्दालंकार के भेद :- → अनुप्रास अलंकार → यमक अलंकार → पुनरुक्ति अलंकार → विप्सा अलंकार → वक्रोक्ति अलंकार → शलेष अलंकार ★ अनुप्रास अलंकार :- अनुप्रास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – अनु + प्रास | यहाँ पर अनु का अर्थ है- बार -बार और प्रास का अर्थ होता है – वर्ण। जब किसी वर्ण की बार – बार आवर्ती हो तब जो चमत्कार होता है उसे अनुप्रास अलंकार कहते है। जैसे :- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप। विश्व बदर इव धृत उदर जोवत सोवत सूप।। अनुप्रास के भेद :- छेकानुप्रास अलंकार वृत्यानुप्रास अलंकार लाटानुप्रास अलंकार अन्त्यानुप्रास अलंकार श्रुत्यानुप्रास अलंकार ★ यमक अलंकार :- यमक शब्द का अर्थ होता है – दो। जब एक ही शब्द ज्यादा बार प्रयोग हो पर हर बार अर्थ अलग-अलग आये वहाँ पर यमक अलंकार होता है। जैसे :- कनक कनक ते सौगुनी , मादकता अधिकाय। वा खाये बौराए नर , वा पाये बौराये। ★ पुनरुक्ति अलंकार क्या है :- पुनरुक्ति अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना है – पुन: +उक्ति। जब कोई शब्द दो बार दोहराया जाता है वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है। ★ विप्सा अलंकार :- जब आदर, हर्ष, शोक, विस्मयादिबोधक आदि भावों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति को ही विप्सा अलंकार कहते है। जैसे :- मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधामय। राधा मन मोहि-मोहि मोहन मयी-मयी।। ★ वक्रोक्ति अलंकार:- जहाँ पर वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का श्रोता अलग अर्थ निकाले उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते है। ★ श्लेष अलंकार :- जहाँ पर कोई एक शब्द एक ही बार आये पर उसके अर्थ अलग अलग निकलें वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है। जैसे :- रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून। पानी गए न उबरै मोती मानस चून।।


2. अर्थालंकार

जहाँ पर अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ अर्थालंकार होता है। अर्थालंकार के भेद :- उपमा अलंकार रूपक अलंकार उत्प्रेक्षा अलंकार द्रष्टान्त अलंकार संदेह अलंकार अतिश्योक्ति अलंकार उपमेयोपमा अलंकार प्रतीप अलंकार अनन्वय अलंकार भ्रांतिमान अलंकार दीपक अलंकार अपहृति अलंकार व्यतिरेक अलंकार विभावना अलंकार विशेषोक्ति अलंकार अर्थान्तरन्यास अलंकार उल्लेख अलंकार विरोधाभाष अलंकार असंगति अलंकार मानवीकरण अलंकार अन्योक्ति अलंकार काव्यलिंग अलंकार स्वभावोती अलंकार 1. उपमा अलंकार :- उपमा शब्द का अर्थ होता है – तुलना। जब किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना किसी दूसरे यक्ति या वस्तु से की जाए वहाँ पर उपमा अलंकार होता है। जैसे :- सागर -सा गंभीर ह्रदय हो , गिरी -सा ऊँचा हो जिसका मन। उपमा अलंकार के अंग :- उपमेय उपमान वाचक शब्द साधारण धर्म 1. उपमेय :- उपमेय का अर्थ होता है – उपमा देने के योग्य। अगर जिस वस्तु की समानता किसी दूसरी वस्तु से की जाये वहाँ पर उपमेय होता है। 2.उपमान :- उपमेय की उपमा जिससे दी जाती है उसे उपमान कहते हैं। अथार्त उपमेय की जिस के साथ समानता बताई जाती है उसे उपमान कहते हैं। 3. वाचक शब्द :- जब उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है तब जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसे वाचक शब्द कहते हैं। 4. साधारण धर्म :- दो वस्तुओं के बीच समानता दिखाने के लिए जब किसी ऐसे गुण या धर्म की मदद ली जाती है जो दोनों में वर्तमान स्थिति में हो उसी गुण या धर्म को साधारण धर्म कहते हैं। उपमा अलंकार के भेद :- पूर्णोपमा अलंकार लुप्तोपमा अलंकार 1. पूर्णोपमा अलंकार :- इसमें उपमा के सभी अंग होते हैं – उपमेय , उपमान , वाचक शब्द , साधारण धर्म आदि अंग होते हैं वहाँ पर पूर्णोपमा अलंकार होता है। जैसे :- सागर -सा गंभीर ह्रदय हो , गिरी -सा ऊँचा हो जिसका मन। 2.लुप्तोपमा अलंकार :- इसमें उपमा के चारों अगों में से यदि एक या दो का या फिर तीन का न होना पाया जाए वहाँ पर लुप्तोपमा अलंकार होता है। जैसे :- कल्पना सी अतिशय कोमल। जैसा हम देख सकते हैं कि इसमें उपमेय नहीं है तो इसलिए यह लुप्तोपमा का उदहारण है। 2. रूपक अलंकार :- जहाँ पर उपमेय और उपमान में कोई अंतर न दिखाई दे वहाँ रूपक अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर उपमेय और उपमान के बीच के भेद को समाप्त करके उसे एक कर दिया जाता है वहाँ पर रूपक अलंकार होता है। जैसे :- ” उदित उदय गिरी मंच पर, रघुवर बाल पतंग। विगसे संत- सरोज सब, हरषे लोचन भ्रंग।।” रूपक अलंकार की निम्न बातें :- उपमेय को उपमान का रूप देना। वाचक शब्द का लोप होना। उपमेय का भी साथ में वर्णन होना। रूपक अलंकार के भेद :- सम रूपक अलंकार अधिक रूपक अलंकार न्यून रूपक अलंकार 1. सम रूपक अलंकार :- इसमें उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है वहाँ पर सम रूपक अलंकार होता है। जैसे :- बीती विभावरी जागरी . अम्बर – पनघट में डुबा रही , तारघट उषा – नागरी। 2.अधिक रूपक अलंकार :- जहाँ पर उपमेय में उपमान की तुलना में कुछ न्यूनता का बोध होता है वहाँ पर अधिक रूपक अलंकार होता है। 3. न्यून रूपक अलंकार :- इसमें उपमान की तुलना में उपमेय को न्यून दिखाया जाता है वहाँ पर न्यून रूपक अलंकार होता है। जैसे :- जनम सिन्धु विष बन्धु पुनि, दीन मलिन सकलंक सिय मुख समता पावकिमि चन्द्र बापुरो रंक।। 3. उत्प्रेक्षा अलंकार :- जहाँ पर उपमान के न होने पर उपमेय को ही उपमान मान लिया जाए। अथार्त जहाँ पर अप्रस्तुत को प्रस्तुत मान लिया जाए वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे :- सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल बाहर सोहत मनु पिये, दावानल की ज्वाल।। उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद :- वस्तुप्रेक्षा अलंकार हेतुप्रेक्षा अलंकार फलोत्प्रेक्षा अलंकार 1. वस्तुप्रेक्षा अलंकार :- जहाँ पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना दिखाई जाए वहाँ पर वस्तुप्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे :- ” सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल। बाहर लसत मनो पिये, दावानल की ज्वाल।।” 2. हेतुप्रेक्षा अलंकार :- जहाँ अहेतु में हेतु की सम्भावना देखी जाती है। अथार्त वास्तविक कारण को छोडकर अन्य हेतु को मान लिया जाए वहाँ हेतुप्रेक्षा अलंकार होता है। 3. फलोत्प्रेक्षा अलंकार :- इसमें वास्तविक फल के न होने पर भी उसी को फल मान लिया जाता है वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे :- खंजरीर नहीं लखि परत कुछ दिन साँची बात। बाल द्रगन सम हीन को करन मनो तप जात।। 4. दृष्टान्त अलंकार :- जहाँ दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होता हो वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है। इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती -जुलती बात उपमान रूप में दुसरे वाक्य में होती है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है। जैसे :- ‘ एक म्यान में दो तलवारें, कभी नहीं रह सकती हैं। किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है।। 5.संदेह अलंकार :- जब उपमेय और उपमान में समता देखकर यह निश्चय नहीं हो पाता कि उपमान वास्तव में उपमेय है या नहीं। जब यह दुविधा बनती है , तब संदेह अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर संशय बना रहे वहाँ संदेह अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है। जैसे :- यह काया है या शेष उसी की छाया, क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया। संदेह अलंकार की मुख्य बातें :- विषय का अनिश्चित ज्ञान। यह अनिश्चित समानता पर निर्भर हो। अनिश्चय का चमत्कारपूर्ण वर्णन हो। 6. अतिश्योक्ति अलंकार :- जब किसी व्यक्ति या वस्तु का वर्णन करने में लोक समाज की सीमा या मर्यादा टूट जाये उसे अतिश्योक्ति अलंकार कहते हैं। जैसे :-हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आगि। सगरी लंका जल गई , गये निसाचर भागि। 7. उपमेयोपमा अलंकार :- इस अलंकार में उपमेय और उपमान को परस्पर उपमान और उपमेय बनाने की कोशिश की जाती है इसमें उपमेय और उपमान की एक दूसरे से उपमा दी जाती है। जैसे :- तौ मुख सोहत है ससि सो अरु सोहत है ससि तो मुख जैसो। 8.प्रतीप अलंकार :- इसका अर्थ होता है उल्टा। उपमा के अंगों में उल्ट – फेर करने से अथार्त उपमेय को उपमान के समान न कहकर उलट कर उपमान को ही उपमेय कहा जाता है वहाँ प्रतीप अलंकार होता है। इस अलंकार में दो वाक्य होते हैं एक उपमेय वाक्य और एक उपमान वाक्य। लेकिन इन दोनों वाक्यों में सदृश्य का साफ कथन नहीं होता , वः व्यंजित रहता है। इन दोनों में साधारण धर्म एक ही होता है परन्तु उसे अलग-अलग ढंग से कहा जाता है। जैसे :- ” नेत्र के समान कमल है।” 9.अनन्वय अलंकार :- जब उपमेय की समता में कोई उपमान नहीं आता और कहा जाता है कि उसके समान वही है , तब अनन्वय अलंकार होता है। जैसे :- ” यद्यपि अति आरत – मारत है. भारत के सम भारत है। 10. भ्रांतिमान अलंकार :- जब उपमेय में उपमान के होने का भ्रम हो जाये वहाँ पर भ्रांतिमान अलंकार होता है अथार्त जहाँ उपमान और उपमेय दोनों को एक साथ देखने पर उपमान का निश्चयात्मक भ्रम हो जाये मतलब जहाँ एक वस्तु को देखने पर दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाए वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी अंग माना जाता है। जैसे :- पायें महावर देन को नाईन बैठी आय । फिरि-फिरि जानि महावरी, एडी भीड़त जाये।। 11.दीपक अलंकार :- जहाँ पर प्रस्तुत और अप्रस्तुत का एक ही धर्म स्थापित किया जाता है वहाँ पर दीपक अलंकार होता है। जैसे :- चंचल निशि उदवस रहें, करत प्रात वसिराज। अरविंदन में इंदिरा, सुन्दरि नैनन लाज।। 12. अपहृति अलंकार :- अपहृति का अर्थ होता है छिपाव। जब किसी सत्य बात या वस्तु को छिपाकर उसके स्थान पर किसी झूठी वस्तु की स्थापना की जाती है वहाँ अपहृति अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है। जैसे :- ” सुनहु नाथ रघुवीर कृपाला , बन्धु न होय मोर यह काला।” 13. व्यतिरेक अलंकार :- व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ होता है आधिक्य। व्यतिरेक में कारण का होना जरुरी है। अत: जहाँ उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहाँ पर व्यतिरेक अलंकार होता है। जैसे :- का सरवरि तेहिं देउं मयंकू। चांद कलंकी वह निकलंकू।। मुख की समानता चन्द्रमा से कैसे दूँ? 14. विभावना अलंकार :- जहाँ पर कारण के न होते हुए भी कार्य का हुआ जाना पाया जाए वहाँ पर विभावना अलंकार होता है। जैसे :- बिनु पग चलै सुनै बिनु काना। कर बिनु कर्म करै विधि नाना। आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी। 15.विशेषोक्ति अलंकार :- काव्य में जहाँ कार्य सिद्धि के समस्त कारणों के विद्यमान रहते हुए भी कार्य न हो वहाँ पर विशेषोक्ति अलंकार होता है। जैसे :- नेह न नैनन को कछु, उपजी बड़ी बलाय। नीर भरे नित-प्रति रहें, तऊ न प्यास बुझाई।। 16.अर्थान्तरन्यास अलंकार :- जब किसी सामान्य कथन से विशेष कथन का अथवा विशेष कथन से सामान्य कथन का समर्थन किया जाये वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है। जैसे :- बड़े न हूजे गुनन बिनु, बिरद बडाई पाए। कहत धतूरे सों कनक, गहनो गढ़ो न जाए।। 17. उल्लेख अलंकार :- जहाँ पर किसी एक वस्तु को अनेक रूपों में ग्रहण किया जाए , तो उसके अलग-अलग भागों में बटने को उल्लेख अलंकार कहते हैं। अथार्त जब किसी एक वस्तु को अनेक प्रकार से बताया जाये वहाँ पर उल्लेख अलंकार होता है। जैसे :- विन्दु में थीं तुम सिन्धु अनन्त एक सुर में समस्त संगीत। 18. विरोधाभाष अलंकार :- जब किसी वस्तु का वर्णन करने पर विरोध न होते हुए भी विरोध का आभाष हो वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है। जैसे :- ‘ आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के। शून्य हूँ जिसमें बिछे हैं पांवड़े पलकें।’ 19. असंगति अलंकार :- जहाँ आपतात: विरोध दृष्टिगत होते हुए, कार्य और कारण का वैयाधिकरन्य रणित हो वहाँ पर असंगति अलंकार होता है। जैसे :- ” ह्रदय घाव मेरे पीर रघुवीरै।” 20. मानवीकरण अलंकार :- जहाँ पर काव्य में जड़ में चेतन का आरोप होता है वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है अथार्त जहाँ जड़ प्रकृति पर मानवीय भावनाओं और क्रियांओं का आरोप हो वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है।जैसे :-बीती विभावरी जागरी , अम्बर पनघट में डुबो रही तास घट उषा नगरी। 21. अन्योक्ति अलंकार :- जहाँ पर किसी उक्ति के माध्यम से किसी अन्य को कोई बात कही जाए वहाँ पर अन्योक्ति अलंकार होता है। जैसे :-फूलों के आस- पास रहते हैं , फिर भी काँटे उदास रहते हैं। 22. काव्यलिंग अलंकार :- जहाँ पर किसी युक्ति से समर्थित की गयी बात को काव्यलिंग अलंकार कहते हैं अथार्त जहाँ पर किसी बात के समर्थन में कोई -न -कोई युक्ति या कारण जरुर दिया जाता है। जैसे :- कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय। उहि खाय बौरात नर, इहि पाए बौराए।। 23. स्वभावोक्ति अलंकार :- किसी वस्तु के स्वाभाविक वर्णन को स्वभावोक्ति अलंकार कहते हैं। जैसे :- सीस मुकुट कटी काछनी , कर मुरली उर माल। इहि बानिक मो मन बसौ , सदा बिहारीलाल।।


3. उभयालंकार

जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित रहकर दोनों को चमत्कारी करते हैं वहाँ उभयालंकार होता है। जैसे :- ‘ कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय।’


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