कक्षा -12
N.C.E.R.T
अपठित गदयांश
अपठित गदयांश क्या है?
वह गद्यांश, जिसका अध्ययन विद्यार्थियों ने पहले कभी न किया हो, उसे अपठित गद्यांश कहते हैं। अपठित गद्यांश देकर उस पर भाव-बोध संबंधी प्रश्न पूछे जाते हैं ताकि विद्यार्थियों की भावग्रहण-क्षमता का मूल्यांकन हो सके।
अपठित गदयांश हल करते समय ध्यान देने योग्य बातें-
1. अपठित गद्यांश का बार-बार मूक वाचन करके उसे समझने का प्रयास करें।
2. इसके पश्चात प्रश्नों को पढ़ें और गद्यांश में संभावित उत्तरों की रेखांकित करें।
3. जिन प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट न हों, उनके उत्तर जानने हेतु गद्यांश को पुन: ध्यान से पढ़ें।
4. प्रश्नों के उत्तर अपनी भाषा में दें।
5. उत्तर संक्षिप्त एवं भाषा सरल और प्रभावशाली होनी चाहिए।
6. यदि कोई प्रश्न शीर्षक देने के संबंध में हो तो ध्यान रखें कि शीर्षक मूल कथ्य से संबंधित होना चाहिए।
7. शीर्षक गद्यांश में दी गई सारी अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाला होना चाहिए।
8. अंत में अपने उत्तरों को पुन: पढ़कर उनकी त्रुटियों को अवश्य दूर करें।
उदाहरण
निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-
1. भारतीय धर्मनीति के प्रणेता नैतिक मूल्यों के प्रति अधिक जागरूक थे। उनकी यह धारणा थी कि नैतिक मूल्यों का दृढ़ता से पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं। उन्होंने उच्चकोटि की जीवन-प्रणाली के निर्माण के लिए वेद की एक ऋचा के आधार पर कहा कि उत्कृष्ट जीवन-प्रणाली मनुष्य की विवेक-बुद्ध से तभी निर्मित होनी संभव है, जब सब लोगों के संकल्प, निश्चय, अभिप्राय समान हों; सबके हृदय में समानता की भव्य भावना जाग्रत हो और सब लोग पारस्परिक सहयोग से मनोनुकूल कार्य करें। चरित्र-निर्माण की जो दिशा नीतिकारों ने निर्धारित की, वह आज भी अपने मूल रूप में मानव के लिए कल्याणकारी है। प्राय: यह देखा जाता है कि चरित्र और नैतिक मूल्यों की उपेक्षा वाणी, बाहु और उदर को संयत न रखने के कारण होती है। जो व्यक्ति इन तीनों पर नियंत्रण रखने में सफल हो जाता है, उसका चरित्र ऊँचा होता है।
सभ्यता का विकास आदर्श चरित्र से ही संभव है। जिस समाज में चरित्रवान व्यक्तियों का बाहुल्य है, वह समाज सभ्य होता है और वही उन्नत कहा जाता है। चरित्र मानव-समुदाय की अमूल्य निधि है। इसके अभाव में व्यक्ति पशुवत व्यवहार करने लगता है। आहार, निद्रा, भय आदि की वृत्ति सभी जीवों में विद्यमान रहती है, यह आचार अर्थात चरित्र की ही विशेषता है, जो मनुष्य को पशु से अलग कर, उससे ऊँचा उठा मनुष्यत्व प्रदान करती है। सामाजिक अनुशासन बनाए रखने के लिए भी चरित्र-निर्माण की आवश्यकता है। सामाजिक अनुशासन की भावना व्यक्ति में तभी जाग्रत होती है, जब वह मानव प्राणियों में ही नहीं, वरन सभी जीवधारियों में अपनी आत्मा के दर्शन करता है।
प्रश्न –
(क) हमारे धर्मनीतिकार नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष जागरूक क्यों थे?
(ख) चरित्र मानव-जीवन की अमूल्य निधि कैसे है? स्पष्ट कीजिए।
(ग) धर्मनीतिकारों ने उच्चकोटि की जीवन-प्रणाली के संबंध में क्या कहा?
(घ) प्रस्तुत गद्यांश में किन पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है और क्यों?
(ड) कैसा समाज सभ्य और उन्नत कहा जाता है?
(च) सामाजिक अनुशासन की भावना व्यक्ति में कब जाग्रत होती है?
(छ) ‘उत्कृष्ट’ और ‘प्रगति’ शब्दों के विलोम तथा ‘बाहु’ और ‘वाणी’ शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए।
(ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर –
(क) हमारे धर्मनीतिकार नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष जागरूक थे। इसका कारण यह था कि नैतिक मूल्यों का पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं।
(ख) चरित्र मानव-जीवन की अमूल्य निधि है, क्योंकि इसके द्वारा ही मनुष्य व पशु में अंतर होता है। चरित्र सामाजिक अनुशासन बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
(ग) धर्मनीतिकारों ने उच्चकोटि की जीवन-प्रणाली के संबंध में यह कहा कि परिष्कृत जीवन-प्रणाली मनुष्य के विवेक-बुद्ध से ही निर्मित हो सकती है। हालाँकि यह तभी संभव है, जब संपूर्ण मानव-जाति के संकल्प और उद्देश्य समान हों। सबके अंतर्मन में भव्य भावना जाग्रत हो और सभी लोग पारस्परिक सहयोग से मनोनुकूल कार्य करें।
(घ) इस गद्यांश में वाणी, बाहु तथा उदर पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है, क्योंकि इन पर नियंत्रण न होने से चारित्रिक व नैतिक पतन हो जाता है।
(ड) यह सर्वमान्य तथ्य है कि सभ्यता का विकास आदर्श चरित्र से ही संभव है। आदर्श चरित्र के अभाव में सभ्यता का विकास असंभव है। अत: जिस समाज में चरित्रवान लोगों की बहुलता होती है, उसी समाज को सभ्य और उन्नत कहा जाता है।
(च) ‘व्यापकता ही जागरण का प्रतीक है।’ अत: किसी व्यक्ति में अनुशासन की भावना का जाग्रत होना तभी संभव हो पाता है, जब वह व्यापक स्वरूप ग्रहण करता है, यानी समस्त जीवधारियों में अपनी आत्मा के दर्शन करता है।
(छ) विलोम शब्द-
उत्कृष्ट × निकृष्ट
प्रगति × अवगति
पर्यायवाची शब्द-
बाहु – भुजा
वाणी – वचन
(ज) शीर्षक-चरित्र-निर्माण।
2. वैदिक युग भारत का प्राय: सबसे अधिक स्वाभाविक काल था। यही कारण है कि आज तक भारत का मन उस काल की ओर बार-बार लोभ से देखता है। वैदिक आर्य अपने युग को स्वर्णकाल कहते थे या नहीं, यह हम नहीं जानते; किंतु उनका समय हमें स्वर्णकाल के समान अवश्य दिखाई देता है। लेकिन जब बौद्ध युग का आरंभ हुआ, वैदिक समाज की पोल खुलने लगी और चिंतकों के बीच उसकी आलोचना आरंभ हो गई। बौद्ध युग अनेक दृष्टियों से आज के आधुनिक आदोलन के समान था। ब्राहमणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध बुद्ध ने विद्रोह का प्रचार किया था, बुद्ध जाति-प्रथा के विरोधी थे और वे मनुष्य को जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम मानते थे।
नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार देकर उन्होंने यह बताया था कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है, उसकी अधिकारिणी नारियाँ भी हो सकती हैं। बुद्ध की ये सारी बातें भारत को याद रही हैं और बुद्ध के समय से बराबर इस देश में ऐसे लोग उत्पन्न होते रहे हैं, जो जाति-प्रथा के विरोधी थे, जो मनुष्य को जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम समझते थे। किंतु बुद्ध में आधुनिकता से बेमेल बात यह थी कि वे निवृत्तिवादी थे, गृहस्थी के कर्म से वे भिक्षु-धर्म को श्रेष्ठ समझते थे। उनकी प्रेरणा से देश के हजारों-लाखों युवक, जउन बाक समाजक भण-पण कनेके हायक थे सन्यास होगए संन्यासक संस्था समाज विधिी सस्था हैं।
प्रश्न –
(क) वैदिक युग स्वर्णकाल के समान क्यों प्रतीत होता है?
(ख) जाति-प्रथा एवं नारियों के विषय में बुद्ध के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
(ग) बुद्ध पर क्या आरोप लगता है और उनकी कौन-सी बात आधुनिकता के प्रसंग में ठीक नहीं बैठती?
(घ) ‘संन्यास’ का अर्थ स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि इससे समाज को क्या हानि पहुँचती है।
(ड) बौद्ध युग का उदय वैदिक समाज के शीर्ष पर बैठे लोगों के लिए किस प्रकार हानिकारक था?
(च) बौद्ध धर्म ने नारियों को समता का अधिकार दिलाने में किस प्रकार से योगदान दिया?
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—
1. उपसर्ग और मूल शब्द अलग-अलग करके लिखिए विद्रोह, संन्यास।
2. मूल शब्द और प्रत्यय अलग-अलग करके लिखिए आधुनिकता, विरोधी।
(ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर –
(क) वैदिक युग भारत का स्वाभाविक काल था। हमें प्राचीन काल की हर चीज अच्छी लगती है। इस कारण वैदिक युग स्वर्णकाल के समान प्रतीत होता है।
(ख) बुद्ध जाति-प्रथा के विरुद्ध थे। उन्होंने ब्राहमणों की श्रेष्ठता का विरोध किया। मनुष्य को वे कर्म के अनुसार श्रेष्ठ या अधम मानते थे। उन्होंने नारी को मोक्ष की अधिकारिणी माना।
(ग) बुद्ध पर निवृत्तिवादी होने का आरोप लगता है। उनकी गृहस्थ धर्म को भिक्षु धर्म से निकृष्ट मानने वाली बात आधुनिकता के प्रसंग में ठीक नहीं बैठती।
(घ) ‘संन्यास’ शब्द ‘सम् + न्यास’ शब्द से मिलकर बना है। ‘सम्’ यानी ‘अच्छी तरह से’ और ‘न्यास’ यानी ‘त्याग करना’। अर्थात अच्छी तरह से त्याग करने को ही संन्यास कहा जाता है। संन्यास की संस्था से देश का युवा वर्ग उत्पादक कार्य में भाग नहीं लेता। इससे समाज की व्यवस्था खराब हो जाती है।
(ड) बौद्ध युग का उदय वैदिक युग की कमियों के प्रतिक्रियास्वरूप हुआ था। वस्तुत: वैदिक युगीन समाज के शीर्ष पर ब्राहमण वर्ग के कुछ स्वार्थी लोग विराजमान थे। ये लोग जन्म के आधार पर अपने-आप को श्रेष्ठ मानते थे और शेष समाज को भी श्रेष्ठ मानने के लिए मजबूर करते थे। ऐसे में बौद्ध धर्म के सिद्धांत शोषित समाज धात अधिकार देकर यह सिद्ध किया कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है। इस पर नारियों का भी हक है। यह नारियों को समता का अधिकार दिलाने में काफी प्रभावी कदम साबित हुआ।
(छ)
1. उपसर्ग-वि, सम्
मूल शब्द-द्रोह, न्यास
2. मूल शब्द-आधुनिक, विरोध।
प्रत्यय-ता, ई।
(ज) शीर्षक-बुद्ध की वैचारिक प्रासंगिकता।
3. तत्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम वह, जो हमें जीवन-यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्रवितीय वह, जो हमें जीना सिखाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाए जीवन-निर्वाह संभव नहीं। कोई भी नहीं चाहेगा कि वह परावलंबी हो-माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य, जाति या समाज पर। पहली विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है। साथ ही विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेनेवाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारु रूप से नहीं चल रहा, उसमें यदि वह जीवन-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्यपथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही वह अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव-जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। वह भारवाही गर्दभ बन जाता है या पूँछ-सींगविहीन पशु कहा जाता है।
वर्तमान भारत में दूसरी विद्या का प्राय: अभावे दिखाई देता है, परंतु पहली विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करके निकला छात्र जीविकार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है, जिनसे व्यक्ति ‘कु’ से ‘सु’ बनता है; सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। यह शिक्षा कुछ सीमा तक हमारे दृष्टिकोण को विकसित भी करती है, हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, किंतु कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है और बृहस्पति बना युवक नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर लेता है।
जीवन के सर्वागीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सोपानों पर विचार किया जाए, तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए, जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं, इनमें व्यतिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन का चारु प्रासाद खड़ा करना असंभव है। यह तो भवन की छत बनाकर नींव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने ‘अन्न’ से ‘आनंद’ की ओर बढ़ने को जो ‘विद्या का सार’ कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था।
प्रश्न –
(क) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) व्यक्ति किस परिस्थिति में मानव-जीवन की उपाधि नहीं पा सकता?
(ग) विद्या के कौन-से दो रूप बताए गए हैं?
(घ) वर्तमान शिक्षा पद्धति के लाभ व हानि बताइए।
(ड) विद्याहीन व्यक्ति की समाज में क्या दशा होती है?
(च) शिक्षा के क्रमिक सोपान कौन-कौन-से हैं?
(छ) शिक्षित युवकों को अपना बहुमूल्य समाज क्यों बर्बाद करना पड़ता है?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—
(ख) व्यक्ति किस परिस्थिति में मानव-जीवन की उपाधि नहीं पा सकता?
(ग) विद्या के कौन-से दो रूप बताए गए हैं?
(घ) वर्तमान शिक्षा पद्धति के लाभ व हानि बताइए।
(ड) विद्याहीन व्यक्ति की समाज में क्या दशा होती है?
(च) शिक्षा के क्रमिक सोपान कौन-कौन-से हैं?
(छ) शिक्षित युवकों को अपना बहुमूल्य समाज क्यों बर्बाद करना पड़ता है?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—
1. संधि-विच्छेद कीजिए-परावलबी, जीविकोपार्जन।
2. विलोम शब्द लिखिए-सार्थक, विकास।
उत्तर –
(क) शीर्षक-शिक्षा के सोपान।
(ख) जीवन-यापन के लिए काफी धन अर्जित करने के बावजूद व्यक्ति का जीवन सुचारु रूप से नहीं चल पाता, क्योंकि उनके पास वह जीवन-शक्ति नहीं होती, जो स्वयं के जीवन को सत्पथ की ओर अग्रसर करती है और साथ-ही-साथ समाज और राष्ट्र का मार्गदर्शन करती है। इस परिस्थिति में व्यक्ति मानव-जीवन की उपाधि नहीं पा सकता।
(ग) विद्या के दो रूप बताए गए हैं
(ख) जीवन-यापन के लिए काफी धन अर्जित करने के बावजूद व्यक्ति का जीवन सुचारु रूप से नहीं चल पाता, क्योंकि उनके पास वह जीवन-शक्ति नहीं होती, जो स्वयं के जीवन को सत्पथ की ओर अग्रसर करती है और साथ-ही-साथ समाज और राष्ट्र का मार्गदर्शन करती है। इस परिस्थिति में व्यक्ति मानव-जीवन की उपाधि नहीं पा सकता।
(ग) विद्या के दो रूप बताए गए हैं
1. वह विद्या जो जीवन-यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है।
2. वह विद्या जो जीना सिखाती है।
(घ) आधुनिक शिक्षा-पद्धति हमारी बुद्ध विकसित करती है, भावनाओं को चेतन करती है, परंतु जीविकोपार्जन के लिए कुछ नहीं कर पाती।
(ड) विद्याहीन व्यक्ति न तो जीवन-यापन के लिए अर्जन करना जानता है और न ही वह जीने की कला से परिचित होता है। उसका जीवन निरर्थक हो जाता है। वह आजीवन परावलंबी होता है।
(च) शिक्षा के क्रमिक सोपान हैं-विद्यार्थी की आवश्यकता, शिक्षा की उपयोगिता और जीवन को परिष्कृत तथा अलकृत करना।
(छ) वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में कला, शिल्प एवं प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप शिक्षित युवकों का जीविकोपार्जन टेढ़ी खीर बन गया है। उन्हें अपना अधिकांश समय नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में बर्बाद करना पड़ता है।
(ज)
(ड) विद्याहीन व्यक्ति न तो जीवन-यापन के लिए अर्जन करना जानता है और न ही वह जीने की कला से परिचित होता है। उसका जीवन निरर्थक हो जाता है। वह आजीवन परावलंबी होता है।
(च) शिक्षा के क्रमिक सोपान हैं-विद्यार्थी की आवश्यकता, शिक्षा की उपयोगिता और जीवन को परिष्कृत तथा अलकृत करना।
(छ) वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में कला, शिल्प एवं प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप शिक्षित युवकों का जीविकोपार्जन टेढ़ी खीर बन गया है। उन्हें अपना अधिकांश समय नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में बर्बाद करना पड़ता है।
(ज)
1. संधि-विच्छेद—परावलंबी : पर + अवलंबी।
जीवकोपार्जन : जीविका + उपार्जन।
जीवकोपार्जन : जीविका + उपार्जन।
2. विलोम शब्द : सार्थक × निरर्थक।
विकास × हास।
विकास × हास।
4. प्रजातंत्र के तीन मुख्य अंग हैं-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। प्रजातंत्र की सार्थकता एवं दृढ़ता को ध्यान में रखते हुए और जनता के प्रहरी होने की भूमिका को देखते हुए मीडिया (दृश्य, श्रव्य और मुद्रित) को प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में देखा जाता है। समाचार-माध्यम या मीडिया को पिछले वर्षों में पत्रकारों और समाचार-पत्रों ने एक विश्वसनीयता प्रदान की है और इसी कारण विश्व में मीडिया एक अलग शक्ति के रूप में उभरा है।
कार्यपालिका और विधायिका की समस्याओं, कार्य-प्रणाली और विसंगतियों की चर्चा प्राय: होती रहती है और सर्वसाधारण में वे विशेष चर्चा के विषय रहते ही हैं। इसमें समाचार-पत्र, रेडियो और टी०वी० समाचार अपनी टिप्पणी के कारण चर्चा को आगे बढ़ाने में योगदान करते हैं, पर न्यायपालिका अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बावजूद उसके बारे में चर्चा कम ही होती है। ऐसा केवल अपने देश में ही नहीं, अन्य देशों में भी कमोबेश यही स्थिति है।
स्वराज-प्राप्ति के बाद और एक लिखित संविधान के देश में लागू होने के उपरांत लोकतंत्र के तीनों अंगों के कर्तव्यों, अधिकारों और दायित्वों के बारे में जनता में जागरूकता बढ़ी है। संविधान-निर्माताओं का उद्देश्य रहा है कि तीनों अंग परस्पर ताल-मेल से कार्य करेंगे। तीनों के पारस्परिक संबंध भी संविधान द्वारा निर्धारित , फिर भी समय के साथ-साथ कुछ समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। आज लोकतंत्र यह महसूस करता है कि न्यायपालिका | भी अधिक पारदर्शिता हो, जिससे उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान बढ़े। ‘जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण है।’
प्रश्न –
(क) लोकतंत्र के तीनों अंगों का नामोल्लेख कीजिए। चौथा अंग किसे माना जाता है?
(ख) लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
(ग) अत्यंत महत्वपूर्ण अंग होने के बावजूद न्यायपालिका के बारे में मीडिया में कम चर्चा क्यों होती है?
(घ) जनता में अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में किसका योगदान है? कैसे?
(ड) ‘पारदर्शिता’ से क्या तात्पर्य है? लोकतंत्र न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता क्यों चाहता है?
(च) आशय स्पष्ट कीजिए-‘जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा हो, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण है।’
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—
(ख) लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
(ग) अत्यंत महत्वपूर्ण अंग होने के बावजूद न्यायपालिका के बारे में मीडिया में कम चर्चा क्यों होती है?
(घ) जनता में अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में किसका योगदान है? कैसे?
(ड) ‘पारदर्शिता’ से क्या तात्पर्य है? लोकतंत्र न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता क्यों चाहता है?
(च) आशय स्पष्ट कीजिए-‘जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा हो, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण है।’
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—
1. विशेषण बनाइए—विश्व, प्रतिष्ठा
2. वाक्य में प्रयोग कीजिए-मर्यादा, विसंगति
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर –
(क) लोकतंत्र के तीन मुख्य अंग हैं-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। चौथा अंग मीडिया को माना जाता है। इसमें दृश्य, श्रव्य व मुद्रित मीडिया होते हैं।
(ख) लोकतंत्र में मीडिया की अह भूमिका है। यह कार्यपालिका व विधायिका की समस्याओं, कार्य-प्रणाली तथा विसंगतियों की चर्चा करती है, पर न्यायपालिका पर किसी प्रकार की टिप्पणी करने से बचती है।
(ग) न्यायपालिका प्रजातंत्र का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, परंतु इसकी चर्चा मीडिया में कम होती है, क्योंकि उसमें पारदर्शिता अधिक होती है। दूसरे, न्यायपालिका अपने विशेषाधिकारों के प्रयोग से मीडिया को दबा देती है।
(घ) जनता में अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में मीडिया का योगदान है। यह सरकार द्वारा बनाई गई नई-नई नीतियों को जनता तक पहुँचाती है तथा उन नीतियों के अंतर्गत दिए गए अधिकारों के प्रति जागरूक बनती है। साथ-ही-साथ यह दायित्वबोध कराने में भी अपनी अह भूमिका अदा करती है।
(ड) ‘पारदर्शिता’ का अर्थ है-आर-पार दिखाई देना या संदेह में न रखना। न्यायपालिका लोकतंत्र की रक्षिका है, परंतु न्यायाधीशों पर आक्षेप लगने लगे हैं। अत: लोकतंत्र न्यायपालिका में पारदर्शिता चाहता है।
(च) इसका अर्थ यह है कि भारत में पहले न्यायाधीशों को ईश्वर के बराबर का दर्जा दिया जाता था, क्योंकि वे पक्षपातपूर्ण निर्णय नहीं देते थे आजकल न्यायाधीशों के निर्णयों व कार्य-प्रणालियों पर आरोप लगाए जाने लगे हैं। यह गलत परंपरा की शुरुआत है।
(छ)
(ख) लोकतंत्र में मीडिया की अह भूमिका है। यह कार्यपालिका व विधायिका की समस्याओं, कार्य-प्रणाली तथा विसंगतियों की चर्चा करती है, पर न्यायपालिका पर किसी प्रकार की टिप्पणी करने से बचती है।
(ग) न्यायपालिका प्रजातंत्र का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, परंतु इसकी चर्चा मीडिया में कम होती है, क्योंकि उसमें पारदर्शिता अधिक होती है। दूसरे, न्यायपालिका अपने विशेषाधिकारों के प्रयोग से मीडिया को दबा देती है।
(घ) जनता में अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में मीडिया का योगदान है। यह सरकार द्वारा बनाई गई नई-नई नीतियों को जनता तक पहुँचाती है तथा उन नीतियों के अंतर्गत दिए गए अधिकारों के प्रति जागरूक बनती है। साथ-ही-साथ यह दायित्वबोध कराने में भी अपनी अह भूमिका अदा करती है।
(ड) ‘पारदर्शिता’ का अर्थ है-आर-पार दिखाई देना या संदेह में न रखना। न्यायपालिका लोकतंत्र की रक्षिका है, परंतु न्यायाधीशों पर आक्षेप लगने लगे हैं। अत: लोकतंत्र न्यायपालिका में पारदर्शिता चाहता है।
(च) इसका अर्थ यह है कि भारत में पहले न्यायाधीशों को ईश्वर के बराबर का दर्जा दिया जाता था, क्योंकि वे पक्षपातपूर्ण निर्णय नहीं देते थे आजकल न्यायाधीशों के निर्णयों व कार्य-प्रणालियों पर आरोप लगाए जाने लगे हैं। यह गलत परंपरा की शुरुआत है।
(छ)
1. विशेषण-वैश्विक, प्रतिष्ठित
2. हर व्यक्ति को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए।
सरकार ने वेतन-विसंगति दूर करने का वायदा किया।
सरकार ने वेतन-विसंगति दूर करने का वायदा किया।
(ज) शीर्षक-मीडिया और लोकतंत्र। अथवा, प्रजातंत्र के अंग।
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