Part-7
Hindi Grammar
हिंदी व्याकरण
लोकोक्ति
लोकोक्ति शब्द दो शब्दो से मिलकर बना है – लोक + उक्ति ।
अर्थात् ऐसी उक्ति जो किसी क्षेत्र विशेष में किसी विशेष अर्थ की ओर संकेत करती है, लोकोक्ति कहलाती है।
इसे कहावत, सुक्ति आदि नामों से जाना जाता है। लोकोक्ति लोक, अनुभवों पर आधारित ज्ञान होता है।
1. अन्धो में काना राजा - मूर्खों के मध्य अल्पग्य ही ज्ञानी
प्रयोग - रामू ही इस गाँव में दर्जा आठ पास है. गाँव के लोग उससे ही समसामयिक बाते पूछते है. ऐसा क्यों न हो, अन्धों में काना राजा।
2. चौर की दाढ़ी में तिनका - अपराधी स्वयं शंकित रहता है
प्रयोग - मैंने तुम पर तो दोष लगाया नहीं तुम क्यों सफाई देने लगे. मालूम होता है कि तुम्ही ने उसे मारा है. चोर की दाढ़ी में तिनका।
3. गरीबी में आटा गीला - विपत्ति पर विपत्ति आना
प्रयोग - दो माह से वेतन नहीं मिला. आज साइकल चोरी चली गई. गरीबी में आटा गीला।
4. कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली - दो व्यक्तियों की स्थिति में बहुत अंतर होना
प्रयोग - श्यामजी जाने माने लेखक है, मोहन जैसे कल के छोकरे से उनका क्या मुकाबला. कहाँ राजा भोज कहा गंगू तेली।
5. दीवारों के भी कान होते है - गुप्त बात छिपी नहीं रहती
प्रयोग - मैं यह बात यहाँ नहीं कहूँगा. एकांत में चलों. जानते नहीं दीवारों के भी कान होते है।
6. निर्बल के बल राम - जिसका कोई सहारा नही, उसकी ईश्वर सहायता करता है
प्रयोग- सभी के पास कोई न कोई सिफारिश थी लेकिन चुनाव हुआ तो विजय का, जिस बेचारे के पास कोई सिफारिश न थी. ठीक ही है निर्बल के बल राम।
7. एक और एक ग्यारह होते है - मेल से शक्ति में वृद्धि होती है
प्रयोग- प्रत्येक मनुष्य को देश के हित में स्वयं लगना चाहिए, क्योकि एक और एक ग्यारह होते है।
8. डूबते तो तिनके का सहारा - विपत्ति काल में थोड़ी सी मदद बहुत होती है
प्रयोग - भाई तुम्हारे इस थोड़े से धन ने मुझ डूबते तो तिनके का सहारा दिया है।
9. बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद - वस्तु विशेष का महत्व मुर्ख नही समझता
प्रयोग - तेल साबुन बेचने वाला दुकानदार संगीत के महत्व को क्या समझे? बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद।
10. सौ सुनार की एक लुहार की - बलवान की चोट कमजोर की सैकड़ों चोटों के बराबर होती है
प्रयोग - मोहन ने राकेश से अत्यंत दुखी मन से कहा. तुम मुझे अधिक परेशान मत करों. याद रखो सौ सुनार की एक लुहार की होती है।
रस
रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनंद' । काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे 'रस' कहा जाता है।
रस के चार अंग है-
(1) स्थायी भाव
(2) अनुभाव
(3) संचारी या (व्यभिचारी) भाव
(4) विभाव
1. स्थायी भाव
ह्रदय में मूलरूप से विध्यमान रहने वाले भावों को स्थायी भाव कहते है। ये चिरकाल तक रहनेवाले तथा रस रूप से सृजित परिणत होते है ।
स्थायी भावों की संख्या नौ है-
स्थायी भाव <===> रस
1. रति ===> श्रृंगार
2. उत्साह ===> वीर
3. वैराग्य ===> शांत
4. शोक ===> करुण
5. क्रोध ===> रौद्र
6. भय ===> भयानक
7. घृणा ===> वीभत्स
8. बिस्मय ===> अद्भुत
9. हास ===> हास्य
10. वत्सलता ===> वात्सल्य
11. भक्ति ===> भगवत रस
I. श्रृंगार रस
नायक-नायिका के प्रेम को देखकर श्रृंगार रस प्रकट होता है।
इसके दो भेद होते है।
1.संयोग श्रृंगार रस
2.वियोग श्रृंगार रस
संयोग श्रृंगार रस
जहाँ नायक व नायिका में परस्पर प्रेमपूर्ण क्रियाओं का वर्णन हो वहाँ संयोग श्रृंगार रस होता है।
उदाहरण-
एक पल मेरे प्रिय के दृग पलक, थे उठे ऊपर सहज निचे गिर
चपलता ने इसे विकंपित पुलक से दृढ किया मनो प्रणय सम्बन्ध था!
वियोग श्रृंगार रस
जहाँ नायक व नायिका का एक-दूसरे से दूर होने के कारण उनकी दुख दशा में वियोग, वियोग श्रृंगार रस कहलाता है।
उदाहरण-
पीर मेरी कर रही गमगीन मुझको
और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर, रानी
और उससे भी अधिक हर पाँव की जंजीर, रानी!
II. वीर रस
किसी कठिन कार्य को करने अथवा युद्ध के लिए ह्रदय में निहित ‘उत्साह’ स्थायीभाव के जाग्रत होने से जो स्थायी भाव उत्पन्न होता है उसे वीर रस कहा जाता है।
उदाहरण:-
वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो।
सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो।
तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं।।
III. शांत रस
जहा संसार के प्रति निर्वेद रस रूप में परिणत होता है वहा शांत रस होता है।
उदाहरण:-
मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना।।
IV. करुण रस
इष्ट वस्तु की हानी अनिष्ट वस्तु का लाभ प्रिय का चिरवियोग, अर्थ हानी आदि से जहाँ शोकभाव की परिपुष्टि होती है वहाँ करुण रस होता है।
उदाहरण:- सोक बिकल सब रोवहिं रानी।
रूपु सीलु बलु तेजु बखानी।।
करहिं विलाप अनेक प्रकारा।।
परिहिं भूमि तल बारहिं बारा।।
V. रौद्र रस
जब किसी प्रिय वस्तु के अपमान होने के कारण ह्रदय में जो बदला लेने की भावना उत्पन्न होती है। वहाँ रोद्र रस उत्पन्न होता है।
उदाहरण:-
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे।
VI. भयानक रस
भयप्रद वस्तु या घटना देखने सुनने अथवा प्रबल शत्रु के विद्रोह आदि से भय या संचार होता है यही भय स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों में परिपुष्ट होकर आस्वाध्य हो जाता है वहाँ भयानक रस होता है।
उदाहरण:-
एक ओर अजग्रही लखी, एक ओर मृगराय!
विकल बटोही बिच ही, परयो मूर्छा खाय!!
VII. वीभत्स रस
अरुचिकर वस्तुएँ तथा दुर्गंधपूर्ण स्थान के विवरण में वीभत्स रस होता है।
उदाहरण:-
सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत।।
गीध जांघि को खोदि-खोदि कै मांस उपारत।
स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।।
VIII. अद्भुत रस
आश्चर्जनक एवं विचित्र वास्तु के देखने व सुनने जब सब आश्चर्य का परिपोषण हो, तब वहाँ अद्भुत रस होता है।
उदाहरण:-
सती दिख कातुक नच जाता,
आगे राम रहित सिय भ्राता।।
IX. हास्य रस
जहाँ किसी काव्य को पड़ने, देखने व सुनने से ह्रदय में जो आनन्द की अनुभूति होती है वहाँ हास्य रस होता है।
उदाहरण:-
मैं महावीर हूँ, पापड़ को तोड़ सकता हूँ।
गुस्सा आ जाए, तो कागज को मोड सकता हूँ।।
X. वात्सल्य रस
जहाँ माँ-बाप का अपनी संतान के प्रति जो प्रेम होता है उसमें वात्सल्य रस होता है।
उदाहरण:-
बाल दशा मुख निरखि जसोदा पुनि पुनि नन्द बुलावति!
अंचरा तर तै ढंकी सुर के प्रभु को दूध पियावति!!
XI. भक्ति या भगवत रस
जहाँ ईश्वर के प्रति प्रेम उनके गुणों का गान करना तथा उनकी प्रशंसा करने में भक्ति रस की व्यंजना होती है।
उदाहरण:-
राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे।
घोर भव नीर-निधि, नाम निज नाव रे।।
2. अनुभाव
वाणी तथा अंग-संचालन आदि की जिन क्रियाओं से आलम्बन तथा उद्दीपन आदि के कारण आश्रय के हृदय में जाग्रत् भावों का साक्षात्कार होता है, वह व्यापार अनुभाव कहलाता है।
अनुभाव के चार भेद है-
(क) कायिक
(ख) मानसिक
(ग़) सात्विक
(घ) आहार्य।
3. संचारी या (व्यभिचारी) भाव
वे भाव जो पानी के बुलबुले की तरह आ के चले जाते हो लेकिन स्थायीभाव को पृष्ठ करते हो संचारी भाव कहलाते है।
इनकी संख्या 33 होती है।
असूया, मद, श्रम, आलस्य, दीनता, चिंता, मोह, स्मृति, धृति, व्रीड़ा, चापल्य, हर्ष, आवेग, जड़ता आदि ।
4. विभाव
जिसे देखकर किसी भाव का जागरण हो उसे आलम्बन विभाव कहेंगे। जिसके हृदय में यह भाव जागे उसे 'आश्रय' कहते हैं।
इसके तीन भेद होते है-
(i)आलम्बन विभाव - जिस कारण से स्थायी भाव जाग्रत हो उसे आलम्बन कहते है।
(ii) उद्दीपन विभाव - स्थायी भाव को जाग्रत रखने में सहायक कारण उद्दीपन विभाव कहलाते हैं।
(iii) आश्रय विभाव - जिनके ह्रदय में भाव जागते है, उन्हें आश्रय कहते है।
अलंकार
अलंकार शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है- आभूषण।
काव्य रूपी काया की शोभा बढ़ाने वाले अवयव को अलंकार कहते हैं।
दुसरे शब्दों में जिस प्रकार आभूषण शरीर की शोभा बढ़ते हैं, उसी प्रकार अलंकार साहित्य या काव्य को सुंदर व् रोचक बनाते हैं।
अलंकार के तीन भेद होते हैं।
1) शब्दालंकार
2) अर्थालंकार
3) उभयालंकार
1. शब्दालंकार
जहाँ शब्दों के प्रयोग से सौंदर्य में वृद्धि होती है और काव्य में चमत्कार आ जाता है, वहाँ शब्दालंकार माना जाता है।
इसके चार प्रकार होते है।
(i) अनुप्रास अलंकार
(ii) श्लेष अलंकार
(iii) यमक अलंकार
(iv) वक्रोती अलंकार
I. अनुप्रास अलंकार
जब किसी वर्ण की आवृति बार-बार हो कम से कम तीन बार वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण:-
मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।
यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है।
अनुप्रास अलंकार के तीन प्रकार है-
(क) छेकानुप्रास
(ख) वृत्यनुप्रास
(ग) लाटानुप्रास
II. श्लेष अलंकार
जहाँ कोई शब्द एक ही बार प्रयुक्त हो, किन्तु प्रसंग भेद में उसके अर्थ एक से अधिक हों, वहां शलेष अलंकार है।
उदाहरण:-
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून ।
पानी गए न ऊबरै मोती मानस चून ।।
यहाँ पानी के तीन अर्थ हैं - कान्ति , आत्म - सम्मान और जल, तथा पानी शब्द एक ही बार प्रयुक्त है तथा उसके अर्थ तीन हैं।
III. यमक अलंकार
जहाँ शब्दों या वाक्यांशों की आवृति एक से अधिक बार होती है, लेकिन उनके अर्थ सर्वथा भिन्न होते हैं,वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण:-
कनक-कनक से सो गुनी, मादकता अधिकाय,
वा खाय बौराय जग, या पाय बोराय।।'
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है- धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है।
IV. वक्रोक्ति अलंकार
जहाँ किसी बात पर वक्ता और श्रोता की किसी उक्ति के सम्बन्ध में,अर्थ कल्पना में भिन्नता का आभास हो, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण:-
कहाँ भिखारी गयो यहाँ ते,
करे जो तुव पति पालो।
2. अर्थालंकार
जिस वाक्य पंक्ति में अर्थ के कारण चमत्कार या सुंदरता उत्पन्न हो, उसे अर्थालंकार कहते है।
अर्थालंकार के भाग –
(i) उपमा
(ii) रूपक
(iii) उत्प्रेक्षा अलंकार
(iv) विभावना
(v) अनुप्रास
I. उपमा
जहाँ गुण , धर्म या क्रिया के आधार पर उपमेय की तुलना उपमान से की जाती है।
उदाहरण:-
हरिपद कोमल कमल से ।
हरिपद ( उपमेय )की तुलना कमल (उपमान) से कोमलता के कारण की गई । अत: उपमा अलंकार है ।
II. रूपक
जहाँ उपमान और उपमेय के भेद को समाप्त कर उन्हें एक कर दिया जाय, वहाँ रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण:-
उदित उदय गिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग।
विगसे संत-सरोज सब, हरषे लोचन भृंग।।
III. उत्प्रेक्षा अलंकार
उपमेय में उपमान की कल्पना या सम्भावना होने पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
उदाहरण:-
सोहत ओढ़े पीत पट, श्याम सलोने गात।
मनहु नील मणि शैल पर, आतप परयो प्रभात।।
IV. विभावना
जहां कारण के अभाव में भी कार्य हो रहा हो , वहां विभावना अलंकार है।
उदाहरण:-
बिनु पग चलै, सुनै बिनु काना ।
कर बिनु कर्म करे विधि नाना ।।
V. अनुप्रास
जहां किसी वर्ण की अनेक बार क्रम से आवृत्ति हो वहां अनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण:-
चारु- चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही थी जल- थल में।
3. उभयालंकार
जहाँ काव्य में शब्द और अर्थ दोनों का चमत्कार एक साथ उत्पन्न होता है। वहाँ उभयालंकार होता है।
उदाहरण:-
मेखलाकर पर्वत अपार |
अपने सहस्त्र दृग सुमन फाड़ ||
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