Friday 24 April 2020

Lakhpal Special | Lekhpal Gram Samaj Suchi | Gramin Samaj Vikas Part 3

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राजस्व लेखपाल

राजस्व विभागउत्तर प्रदेश द्वारा आयोजित

ग्राम समाज एवं विकास

Part 3


ग्राम विकास शोध प्रणालियाँ
भारत गांवों में बसता है तथा गांव ही भारत की आत्मा है, सो इस परिपेक्ष्य में हम कह सकते हैं कि गांवों का विकास ही भारत का विकास है। आज के वर्तमान तकनीकी युग में ग्राम विकास हेतु विभिन्न शोधों द्वारा अनेक प्रणालियों को अपनाया जा रहा है, जिससे ग्रामीण जीवन भी बदले तथा आधारभूत स्थायी विकास भी हो सके, इनसे सम्बद्ध विवरण निम्नवत् हैं

हरित क्रांति (भारत)

भारत में हरित क्रांति की शुरुआत सन् १९६६-६७ से हुई। हरित क्रान्ति प्रारम्भ करने का श्रेय नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर नारमन बोरलॉग को जाता है। हरित क्रान्ति से अभिप्राय देश के िंसचित एवं अिंसचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाले संकर तथा बौने बीजों के उपयोग से फसल उत्पादन में वृद्धि करना हैं।
हरित क्रान्ति भारतीय कृषि में लागू की गई उस विकास विधि का परिणाम है, जो १९६० के दशक में पारम्परिक कृषि को आधुनिक तकनीकि द्वारा प्रतिस्थापित किए जाने के रूप में सामने आई। क्योंकि कृषि क्षेत्र में यह तकनीकि एकाएक आई, तेजी से इसका विकास हुआ और थोड़े ही समय में इससे इतने आश्चर्यजनक परिणाम निकले कि देश के योजनाकारों, कृषि विशेषज्ञों तथा राजनीतिज्ञों ने इस अप्रत्याशित प्रगति को ही `हरित क्रान्ति' की संज्ञा प्रदान कर दी। हरित क्रान्ति की संज्ञा में इसलिये भी दी गई, क्योंकि इसके फलस्वरूप भारतीय कृषि निर्वाह स्तर से ऊपर उठकर आधिक्य स्तर पर चुकी थी।

उपलब्धियाँ

हरित क्रान्ति के फलस्वरूप देश के कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई। कृषि आगतों में हुए गुणात्मक सुधार के फलस्वरूप देश में कृषि उत्पादन बढ़ा है। खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता आई है। व्यवसायिक कृषि को बढ़ावा मिला है। कृषकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है। कृषि आधिक्य में वृद्धि हुई है। हरित क्रान्ति के फलस्वरूप गेहूँ, गन्ना, मक्का तथा बाजरा आदि फसलों के प्रति हेक्टेअर उत्पादन एवं कुल उत्पादकता में काफी वृद्धि हुई है। हरित क्रान्ति की उपलब्धियों को कृषि में तकनीकि एवं संस्थागत परिवर्तन एवं उत्पादन में हुए सुधार के रूप में निम्नवत देखा जा सकता है

() कृषि में तकनीकी एवं संस्थागत सुधार

रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग
नवीन कृषि नीति के परिणामस्वरूप रासायनिक उर्वरकों के उपभोग की मात्रा में तेजी से वृद्धि हुई है। १९६०-१९६१ में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग प्रति हेक्टेअर दो किलोग्राम होता था, जो २००८-२००९ में बढ़कर १२८. किग्रा प्रति हेक्टेअर हो गया है। इसी प्रकार १९६०-१९६१ में देश में रासायनिक खादों की कुल खपत २.९२ लाख टन थी, जो बढ़कर २००८-२००९ में २४९.०९ लाख टन हो गई। उन्नतशील बीजों के प्रयोग में वृद्धि देश में अधिक उपज देने वाले उन्नतशील बीजों का प्रयोग बढ़ा है तथा बीजों की नई नई किस्मों की खोज की गई है। अभी तक अधिक उपज देने वाला कार्यक्रम गेहूँ, धान, बाजरा, मक्का ज्वार जैसी फसलों पर लागू किया गया है, परन्तु गेहूँ में सबसे अधिक सफलता प्राप्त हुई है। वर्ष २००८ - २००९ में ,००,००० क्विंटल प्रजनक बीज तथा .६९ लाख क्विंटल आधार बीजों का उत्पादन हुआ तथा १९० लाख प्रमाणिक बीज वितरित किये गये।

िंसचाई सुविधाओं का विकास
नई विकास विधि के अन्तर्गत देश में िंसचाई सुविधाओं का तेजी के साथ विस्तार किया गया है। १९५१ में देश में कुल िंसचाई क्षमता २२३ लाख हेक्टेअर थी, जो बढ़कर २००८-२००९ में १,०७३ लाख हेक्टेअर हो गई। देश में वर्ष १९५१ में कुल संचित क्षेत्र २१० लाख हेक्टेअर था, जो बढ़कर २००८-२००९ में ६७३ लाख हेक्टेअर हो गया।

पौध संरक्षण
नवीन कृषि विकास विधि के अन्तर्गत पौध संरक्षण पर भी ध्यान दिया जा रहा है। इसके अन्तर्गत खरपतवार एवं कीटों का नाश करने के लिए दवा छिड़कने का कार्य किया जाता है तथा टिड्डी दल पर नियन्त्रण करने का प्रयास किया जाता है। वर्तमान में समेकित कृषि प्रबन्ध के अन्तर्गत पारिस्थितिकी अनुकूल कृमि नियंत्रण कार्यक्रम लागू किया गया है।

बहुफसली कार्यक्रम
बहुफसली कार्यक्रम का उद्देश्य एक ही भूमि पर वर्ष में एक से अधिक फसल उगाकर उत्पादन को बढ़ाना है। अन्य शब्दों में भूमि की उर्वरता शक्ति को नष्ट किये बिना, भूमि के एक इकाई क्षेत्र से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करना ही बहुफसली कार्यक्रम कहलाता है। १९६६-१९६७ में ३६ लाख हेक्टेअर भूमि में बहुफसली कार्यक्रम लागू किया गया। वर्तमान समय में भारत की कुल संचित भूमि के ७१ प्रतिशत भाग पर यह कार्यक्रम लागू है।

आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रयोग
नई कृषि विकास विधि एवं हरित क्रान्ति में आधुनिक कृषि उपकरणों, जैसेट्रैक्टर, थ्रेसर, हार्वेस्टर, बुलडोजर तथा डीजल एवं बिजली के पम्पसेटों आदि ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस प्रकार कृषि में पशुओं तथा मानव शक्ति का प्रतिस्थापन संचालन शक्ति द्वारा किया गया है, जिससे कृषि क्षेत्र के उपयोग एवं उत्पादकता में वृद्धि हुई है।

कृषि सेवा केन्द्रों की स्थापना
कृषकों में व्यवसायिक साहस की क्षमता को विकसित करने के उद्देश्य से देश में कृषि सेवा केन्द्र स्थापित करने की योजना लागू की गई है। इस योजना में पहले व्यक्तियों को तकनीकी प्रशिक्षण दिया जाता है, फिर इनसे सेवा केंद्र स्थापित करने को कहा जाता है। इसके लिये उन्हें राष्ट्रीयकृत बैंकों से सहायता दिलाई जाती है। अब तक देश में कुल ,३१४ कृषि सेवा केन्द्र स्थापित किये जा चुके हैं।

कृषि उद्योग निगम
सरकारी नीति के अन्तर्गत १७ राज्यों में कृषि उद्योग निगमों की स्थापना की गई है। इन निगमों का कार्य कृषि उपकरणों मशीनरी की पूर्ति तथा उपज प्रसंस्करण एवं भण्डारण को प्रोत्साहन देना है। इसके लिये यह निगम किराया क्रय पद्धति के आधार पर ट्रैक्टर, पम्पसेट एवं अन्य मशीनरी को वितरित करता है।

विभिन्न निगमों की स्थापना
हरित क्रान्ति की प्रगति मुख्यत: अधिक उपज देने वाली किस्मों एवं उत्तम सुधरे हुये बीजों पर निर्भर करती है। इसके लिये देश में ४०० कृषि फार्म स्थापित किये गये हैं। १९६३ में राष्ट्रीय बीज निगम की स्थापना की गई है। १९६३ में राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम की स्थापना की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य कृषि उपज का विपणन, प्रसंस्करण एवं भण्डारण करना है। विश्व बैंक की सहायता से राष्ट्रीय बीज परियोजना भी प्रारम्भ की गई, जिसके अन्तर्गत कई बीज निगम बनाये गये हैं। भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारिता विपणन संघ (नेफेड) एक शीर्ष विपणन संगठन है, जो प्रबन्धन, विपणन एवं कृषि सम्बंधित चुनिन्दा वस्तुओं के आयात निर्यात का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक की स्थापना कृषि वित्त के कार्य हेतु की गई है। कृषि के लिये खाद्य निगम एवं उर्वरक साख गारन्टी निगम, ग्रामीण विद्युतीकरण निगम आदि भी स्थापित किए गए हैं।

मृदा परीक्षण
मृदा परीक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत विभिन्न क्षेत्रों की मिट्टी का परीक्षण सरकारी प्रयोगशालाओं में किया जाता है। इसका उद्देश्य भूमि की उर्वरा शक्ति का पता लगाकर कृषकों को तदनुरूप रासायनिक खादों एवं उत्तम बीजों के प्रयोग की सलाह देना है। वर्तमान समय में इन सरकारी प्रयोगशालाओं में प्रतिवर्ष सात लाख नमूनों का परीक्षण किया जाता है। कुछ चलती फिरती प्रयोगशालाएं भी स्थापित की गईं हैं, जो गांव-गांव जाकर मौके पर मिट्टी का परीक्षण करके किसानों को सलाह देती हैं।

भूमि संरक्षण
भूमि संरक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत कृषि योग्य भूमि को क्षरण से रोकने तथा ऊबड़-खाबड़ भूमि को समतल बनाकर कृषि योग्य बनाया जाता है। यह कार्यक्रम उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात तथा मध्य प्रदेश में तेजी से लागू है।

कृषि शिक्षा एवं अनुसन्धान
सरकार की कृषि नीति के अन्तर्गत कृषि शिक्षा का विस्तार करने के लिए पन्तनगर में पहला कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किया गया है। आज कृषि और इससे सम्बन्धित क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के लिये ४ कृषि विश्वविद्यालय, ३९ राज्य कृषि विश्वविद्यालय और इम्फाल में एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है। कृषि अनुसन्धान हेतु `भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद्' है, जिसके अन्तर्गत ५३ केन्द्रीय संस्थान, ३२ राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र, १२ परियोजना निदेशालय, ६४ अखिल भारतीय समन्वय अनुसन्धान परियोजनाएं हैं।
इसके अतिरिक्त देश में ५२७ कृषि विज्ञान केन्द्र हैं, जो शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य कर रहे हैं। कृषि शिक्षा एवं प्रशिक्षण की गुणवत्ता बनाये रखने के लिये विभिन्न संस्थाओं के कम्प्यूटरीकरण और इन्टरनेट की सुविधा प्रदान की गई है।

() कृषि उत्पादन में सुधार उत्पादन तथा

उत्पादकता में वृद्धि
हरित क्रान्ति अथवा भारतीय कृषि में लागू की गई नई विकास विधि का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि देश में फसलों के क्षेत्रफल में वृद्धि, कृषि उत्पादन तथा उत्पादकता में वृद्धि हो गई। विशेषकर गेहूँ, बाजरा, धान, मक्का तथा ज्वार के उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई। जिसके परिणामस्वरूप खाद्यान्नों में भारत आत्मनिर्भर-सा हो गया। १९५१-१९५२ में देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन .०९ करोड़ टन था, जो क्रमश: बढ़कर २००८-२००९ में बढ़कर २३.३८ करोड़ टन हो गया। इसी तरह प्रति हेक्टेअर उत्पादकता में भी पर्याप्त सुधार हुआ है। वर्ष १९५०-१९५१ में खाद्यान्नों का उत्पादन ५२२ किग्रा प्रति हेक्टेअर था, जो बढ़कर २००८-२००९ में ,८९३ किग्रा प्रति हेक्टेअर हो गया। हाँ, भारत में खाद्यान्न उत्पादनों में कुछ उच्चावचन भी हुआ है, जो बुरे मौसम आदि के कारण रहा जो यह सिद्ध करता है कि देश में कृषि उत्पादन अभी भी मौसम पर निर्भर करता है।

कृषि के परम्परागत स्वरूप में परिवर्तन
हरित क्रान्ति के फलस्वरूप खेती के परम्परागत स्वरूप में परिवर्तन हुआ है और खेती व्यवसायिक दृष्टि से की जाने लगी है। जबकि पहले सिर्फ पेट भरने के लिए की जाती थी। देश में गन्ना, कपास, पटसन तथा तिलहनों के उत्पादन में वृद्धि हुई है। कपास का उत्पादन १९६०-१९६१ में . मिलियन गांठ था, जो बढ़कर २००८- २००९ में २७ मिलियन गांठ हो गया। इसी तरह तिलहनों का उत्पादन १९६०-१९६१ में मिलियन टन था, जो बढ़कर २००८-२००९ में २८. मिलियन टन हो गया। इसी तरह पटसन, गन्ना, आलू तथा मूंगफली आदि व्यवसायिक फसलों के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। वर्तमान समय में देश में बागबानी फसलों, फलों, सब्जियों तथा फूलों की खेती को भी बढ़ावा दिया जा रहा है।

कृषि बचतों में वृद्धि
उन्नतशील बीजों, रासायनिक खादों, उत्तम िंसचाई तथा मशीनों के प्रयोग से उत्पादन बढ़ा है। जिससे कृषकों के पास बचतों की उल्लेखनीय मात्रा में वृद्धि हुई है। जिसको देश के विकास के काम में लाया जा सका है।

अग्रगामी तथा प्रतिगामी संबंधों में मजबूती
नवीन प्रौद्योगिकी तथा कृषि के आधुनिकीकरण ने कृषि तथा उद्योग के परस्पर सम्बन्ध को और भी मजबूत बना दिया है। पारम्परिक रूप में यद्यपि कृषि और उद्योग का अग्रगामी सम्बन्ध पहले से ही प्रगाढ़ था, क्योंकि कृषि क्षेत्र द्वारा उद्योगों को अनेक आगत उपलब्ध कराये जाते हैं। परन्तु इन दोनों में प्रतिगामी सम्बन्ध बहुत ही कमजोर था, क्योंकि उद्योग निर्मित वस्तुओं का कृषि में बहुत ही कम उपयोग होता था। परन्तु कृषि के आधुनिकीकरण के फलस्वरूप अब कृषि में उद्योग निर्मित आगतों, जैसे-कृषि यन्त्र एवं रासायनिक उर्वरक आदि, की मांग में भारी वृद्धि हुई है, जिससे कृषि का प्रतिगामी सम्बन्ध भी सुदृढ़ हुआ है। अन्य शब्दों में कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र के सम्बन्धों में अधिक मजबूती आई है।
इस तरह स्पष्ट है कि हरित क्रान्ति के फलस्वरूप देश में कृषि आगतों एवं उत्पादन में पर्याप्त सुधार हुआ है। इसके फलस्वरूप कृषक, सरकार तथा जनता सभी में यह विश्वास जाग्रत हो गया कि भारत कृषि पदार्थों के उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर ही नहीं हो सकता, बल्कि निर्यात भी कर सकता है।

विश्लेषण
देश में योजना काल में कृषि के क्षेत्र में पर्याप्त विकास हुआ है। कुल कृषि क्षेत्र बढ़ा है, फसल के स्वरूप में परिवर्तन हुआ है, िंसचित क्षेत्र बढ़ा है, रासायनिक खादों के उपयोग में वृद्धि हुई है तथा आधुनिक कृषि यन्त्रों का उपयोग होने लगा है। इन सब बातों के होते हुये भी अभी तक देश में कृषि का विकास उचित स्तर तक नहीं पहुँच पाया है, क्योंकि यहाँ प्रति हेक्टेअर कृषि उत्पादन अन्य विकसित देशों की तुलना में कम है। अभी अनेक कृषि उत्पादों का आयात करना पड़ता है। क्योंकि उनका उत्पादन मांग की तुलना में कम है। कृषि क्षेत्र का अभी भी एक बड़ा भाग अिंसचित है। कृषि में यन्त्रीकरण का स्तर अभी भी कम है, जिससे उत्पादन लागत अधिक आती है। कृषकों को विभागीय सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलती हैं, जिससे कृषि विकास में बाधा उत्पन्न होती है। अत: इस बात की आवश्यकता है कि कृषि में तकनीकि एवं संस्थागत
सुधारों को अधिक कारगर ढंग से लागू कर कृषि क्षेत्र का और
अधिक विकास किया जाये।

कमियाँ तथा समस्याएँ
देश में हरित क्रान्ति के फलस्वरूप कुछ फसलों के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, खाद्यान्नों के आयात में कमी आई है, कृषि के परम्परागत स्वरूप में परिवर्तन आया है, फिर भी इस कार्यक्रम में कुछ कमियाँ परिलक्षित होती हैं। हरित क्रान्ति की प्रमुख कमियाँ एवं समस्याओं को निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है

प्रभावहरित क्रान्ति का प्रभाव कुछ विशेष फसलों तक ही सीमित रहा, जैसेगेहूँ, ज्वार, बाजरा। अन्य फसलों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। यहाँ तक कि चावल भी इससे बहुत ही कम प्रभावित हुआ है। व्यापारिक फसलें भी इससे अप्रभावित ही हैं।

पूंजीवादी कृषि को बढ़ावाअधिक उपजाऊ किस्म के बीज एक पूंजी-गहन कार्यक्रम हैं, जिसमें उर्वरकों, िंसचाई, कृषि यन्त्रों आदि आगतों पर भारी मात्रा में निवेश करना पड़ता है। भारी निवेश करना छोटे तथा मध्यम श्रेणी के किसानों की क्षमता से बाहर हैं। इस तरह, हरित क्रान्ति से लाभ उन्हीं किसानों को हो रहा है, जिनके पास निजी पम्पिंग सेट, ट्रैक्टर, नलकूप तथा अन्य कृषि यन्त्र हैं। यह सुविधा देश के बड़े किसानों को ही उपलब्ध है। सामान्य किसान इन सुविधाओं से वंचित हैं।

संस्थागत सुधारों की आवश्यकता पर बल नहींनई विकास विधि में संस्थागत सुधारों की आवश्यकता की सर्वथा अवहेलना की गयी है। संस्थागत परिवर्तनों के अन्तर्गत सबसे महत्वपूर्ण घटक भू-धारण की व्यवस्था है। इसकी सहायता से ही तकनीकी परिवर्तन द्वारा अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। देश में भूमि सुधार कार्यक्रम सफल नहीं रहे हैं तथा लाखों कृषकों को आज भी भू-धारण की निश्चितता नहीं प्रदान की जा सकी है। श्रमविस्थापन की समस्या - हरित क्रान्ति के अन्तर्गत प्रयुक्त कृषि यन्त्रीकरण के फलस्वरूप श्रम-विस्थापन को बढ़ावा मिला है। ग्रामीण जनसंख्या का रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने का यह भी एक कारण है।

आय की बढ़ती असमानताकृषि में तकनीकी परिवर्तनों का ग्रामीण क्षेत्रों में आय-वितरण पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। डॉ. वी. के. आर. वी. राव के अनुसार, ``यह बात अब सर्वविदित है कि तथाकथित हरित क्रान्ति, जिसने देश में खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने में सहायता दी है, के साथ ग्रामीण आय में असमानता बढ़ी है, बहुत से छोटे किसानों को अपने काश्तकारी अधिकार छोड़ने पड़े हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक और आर्थिक तनाव बढ़े हैं।''

आवश्यक सुविधाओं का अभावहरित क्रान्ति की सफलता के लिए आवश्यक सुविधाओं यथा- िंसचाई व्यवस्था, कृषि साख, आर्थिक जोत तथा सस्ते आगतों आदि के अभाव में कृषि-विकास के क्षेत्र में वांछित सफलता नहीं प्राप्त हो पा रही है।

क्षेत्रीय असन्तुलनहरित क्रान्ति का प्रभाव पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु आदि राज्यों तक ही सीमित है। इसका प्रभाव सम्पूर्ण देश पर ना पैâ पाने के कारण देश का सन्तुलित रूप से विकास नहीं हो पाया। इस तरह, हरित क्रान्ति सीमित रूप से ही सफल रही है।


इंदिरा गाँधी पंचायती राज एवं ग्रामीण विकास संस्थान
इंदिरा गाँधी पंचायती राज एवं ग्रामीण विकास संस्थान का प्रमुख उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं के चुने गए प्रतिनिधियों तथा पदाधिकारियों का प्रशिक्षण करना है। इसी के अनुरूप, संस्थान विभिन्न कार्यक्रमों परियोजनाओं के तहत लक्षित समूहों को प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है, ताकि ग्रामीण विकास की विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए उनकी क्षमताओं का विकास हो सके। हाल ही के वर्षों में संस्थान िवशिष्ट प्रशिक्षण अभियान आयोजित कर रहा है। ऐसा ही एक अभियान पंचायती राज संस्थाओं के चुने गए नवीन प्रतिनिधियों के लिए चलाया गया जिसमें उनका पंचायती राज संस्थाओं के कार्यों, उनकी जिम्मेदारियों तथा कार्यों आदि के बारे में आमुखीकरण किया गया। एक अन्य अभियान २००९-१० में महानरेगा के सभी स्टॉकहोल्डर्स के लिए आयोजित किया गया। फरवरी २०१० में चुने गए पंचायती राज संस्थाओं के प्रतिनिधियों के क्षमताओं विकास के लिए २०१०-११ में एक अन्य अभियान चलाया गया।

ग्रामीण विकास और वित्तीय समावेशन
वित्तीय समावेशन शब्दावली का प्रयोग भारतीय रिजर्व बैंक ने वार्षिक नीति, २००५-०६ के वक्तव्य में पहली बार किया। भारतीय रिजर्व बैंक के उप गवर्नर श्री वी. लीलाधर जी के अनुसार, ``वित्तीय समावेशन समाज के वंचित और कम आय वाले समूहों को ऐसी लागत पर बैंिंकग सुविधाएं उपलब्ध कराना है, जो उन पर भार बन सकें।''
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर श्रीमान डी. सुब्बाराव जी ने ``आर्थिक अवसर और वित्तीय पहुँच'' का सरोकार स्थापित किया है और वित्तीय  पहुँच को खासकर गरीबों के लिए शक्तिशाली मानते हुए उन्हें बचत इकट्ठी करने, निवेश करने और ऋण लेने का एक वित्तीय अवसर के रूप में परिभाषित किया है। ग्रामीण इलाकों में स्वयं सहायता समूह, राज्य सरकार के वित्तीय संगठन एवं व्यवसाय प्रतिनिधि और सुविधादाता (बीसी-बीएफ-मॉडल) के माध्यम से वित्तीय समावेशन को सफलतापूर्वक  कार्यान्वित किया जा सकता है। सरकारी क्षेत्र के बैंक वित्तीय समावेशन के लिए ``नो प्रिâल्स खाते'' खोल रहे हैं।
ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स ने वित्तीय समावेशन के लिए ``ओरिएन्टल ग्रामीण जमा योजना'' प्रारम्भ की है। अखिल भारीय स्तर पर वित्तीय समावेशन को लागू करते हुए लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं।

वित्तीय समावेशन और ग्रामीण विकास के लिए निर्धारित लक्ष्य वित्तीय समावेशन के लिए केंद्रीय बजट २०१०-११ के लिए निर्धारित लक्ष्य इस प्रकार हैं
मार्च २०१२ तक २००० से अधिक आबादी वाली बस्तियों में बैंिंकग सुविधाएं प्रदान करना।
बीसी-बीएफ-मॉडल का प्रयोग करते हुए बीमा और अन्य सेवाएं उपलब्ध कराना इस व्यवस्था को ६०,००० बस्तियों में शामिल किया जाना।
वित्तीय समावेशन निधि और वित्तीय समावेशन प्रौद्योगिकी निधि में से १०० करोड़ की बढ़ोत्तरी में भारत सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक और नाबार्ड।

ग्रामीण विकास
ग्रामीण विकास के लिए ६६,१०० करोड़ रु. उपलब्ध कराए गए हैं।
महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का आवंटन बढ़ाकर २०१०-११ में ४०,१०० करोड़ रुपये करना।
भारत निर्माण के तहत ग्रामीण अवसंरचना कार्यक्रम के लिए ४८,००० करोड़ रु. की राशि आवंटित।
इंदिरा गाँधी योजना के अंतर्गत यूनिट लागत लागत के लिए किया गया आवंटन बढ़ाकर १०,००० करोड़ रु. करना।
पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि को किए जाने वाले आवंटन में २६ प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करके अनुदान निधि ,३०० रुपये करना।
बुंदेलखण्ड क्षेत्र में सूखे से निपटने के लिए ,२०० करोड़ रु. की अतिरिक्त केंद्रीय सहायता उपलब्ध कराना।
वित्तीय समावेशन ग्रामीण विकास का एक महत्वपूर्ण अंग है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य है, वित्तीय समावेशन। ग्रामीण जनता एवं छोटे किसानों को बैंकों के द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त होने पर वे साहूकारों के चंगुल से छुटकारा प्राप्त कर सकेंगे। ग्रामीण इलाकों में स्वयं सहायता समूह के माध्यम से महिलाओं को सक्षम बनाने में सहायता प्राप्त हुई है। वित्तीय समावेशन केवल वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, बल्कि भूमिका में भी अपना योगदान दिया है।

वित्तीय समावेशन की आवश्यकता
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा केंद्र सरकार को प्रस्तुत ``भारत में बैंिंकग की प्रवृत्ति एवं प्रगति संबंधी रिपोर्ट, २००९-१०'' के अनुसार वित्तीय समावेशन की निम्नगत रूप से आवश्यकता स्पष्ट की है, जो
. वित्तीय विस्तार और वित्तीय सघनता के स्तर को कम करने के लिए एवं जीडीपी की तुलना में निजी कर्ज के अनुपात के अनुसार तुलना करने पर भारत में बैंिंकग क्षेत्र का आकार एवं विस्तार बढ़ाने के लिए वित्तीय समावेशन की प्रक्रिया को सुदृढ़ करना आवश्यक है।
. ``नो प्रिâल्स खाते'' खोलने और लेन-देन प्रणाली को बनाये रखने के लिए तथा खाताधारक को कम राशि की ओवरड्राफ्ट सुविधा का लाभ प्रदान करने के लिए वित्तीय समावेशन आवश्यक है।
. भारतीय रिजर्व बैंक ने सन् १९९२ को प्रायोगिक स्तर पर शुरू किया गया ``स्वयं सहायता बैंक सम्पर्क कार्यक्रम (एसबीएलपी)'', जो स्वयं सहायता समूहों को बैंिंकग से जोड़ता है। इस कार्यक्रम ने काफी वृद्धि दर्शायी है। इस स्थिति को बनाए रखने के लिए वित्तीय समावेशन आवश्यक है।

भारत सरकार और नाबार्ड का योगदान

नाबार्ड ने वित्तीय समावेशन निधि और वित्तीय समावेशन प्रौद्योगिकी निधि इन दो निधियों का गठन रंगराजन समिति की सिफारिश के अनुसार किया। भारत सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक और नाबार्ड द्वारा पाँच वर्ष की अवधि में क्रमश: ४० : ४० : २० के अनुपात में अंशदान किया जाएगा। केंद्रीय बजट २०१०-११ में प्रत्येक निधि की मूल राशि में १०० करोड़ रु. की वृद्धि की है।

ग्रामीण विकास के योगदान में वित्तीय समावेशन
ग्रामीण इलाकों में वित्तीय समावेशन सफल रूप से कार्यान्वित किया जा सकेगा। जिसके लिए हमें निम्नगत कार्य करने होंगे

. ग्रामीण लोगों को रोजाना बचत की आदत लगाने के लिए प्रोत्साहित करना एवं उन्हें वित्तीय सुविधाओं से अवगत कराने और इन सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए वित्तीय रूप से उन्हें साक्षर करना। बैंक द्वारा बचत खाते खोलना एवं आवश्यकता पड़ने पर ऋण सुविधाएँ उपलब्ध कराना। इस कार्य में स्वयं सहायता समूह या व्यवसाय प्रतिनिधि या सुविधादाता (बीसी-बीएफ) से सेवा ली जा सकती है।

. ग्रामीण इलाकों में स्थित डाक घर की आम आदमी बीमा योजना एवं वरिष्ठ नागरिक जमा योजना के बारे में वित्तीय सुविधा विहीन लोगों को जानकारी देना और उन्हें इन सुविधाओं से जोड़ना तथा केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार द्वारा चलाई जा रही रोजगार गारंटी योजनाओं से प्राप्त रोजगार इन लोगों के खाते में जमा किया जा सके, ताकि आवश्यकता पड़ने पर वे नकद निकासी कर सकेंगे अन्य राशि बचत की जाएगी। जिसमें वे अपना पारिवारिक आर्थिक नियोजन कर सकते हैं।

. वित्तीय साक्षरता के अभियान को सक्रिय करना होगा। इस अभियान में केवल भारतीय रिजर्व बैंक या नाबार्ड का ही योगदान हो, बल्कि राज्य सरकार एवं स्थानीय प्रशासन को भी अपनी भूमिका निभानी होगी। प्रचार माध्यमों एवं क्षेत्रीय समाचार पत्रों को वित्तीय साक्षरता अभियान में पहल करनी होगी। महाराष्ट्र में किसानों के लिए मुंबई दूरदर्शन के द्वारा ``आमची माती, आमची माणसं'' और पुणे दूरदर्शन द्वारा ``कृषि दर्शन'' आदि कार्यक्रमों के प्रसारण काफी लोकप्रिय हो चुके हैं। अत: वित्तीय साक्षरता के लिए भी ऐसे कार्यक्रम प्रसारित किए जाएंगे, तो काफी लाभ होगा।

. महाराष्ट्र में किसानों के लिए ``फसल बीमा योजना'' के कार्यान्वयन से किसानों को काफी राहत मिल गई है, उन्हें विभिन्न फसल उत्पाद के लिए राज्य सरकार द्वारा जोखिम ली जा रही है। अब वे किसान अत्यंत आत्मनिर्भर होकर खेती कर रहे हैं। खेती पर आधारित आजीविका चलाने वाले खेत मजदूरों के लिए वित्तीय सुविधाविहीन लोगों के लिए ऐसे प्रयोग किए जा सकते हैं, ताकि वे वित्तीय सुविधा के दायरे  में शामिल हो सकें।

. सरकारी क्षेत्र के बैंकों, ग्रामीण बैंकों एवं सहकारी बैंकों के द्वारा किसानों को जारी की गई `किसान क्रेडिट योजना' (KCC) के अंतर्गत खेती एवं कृषि एवं कृषि उत्पादकता को बढ़ावा देने के लिए किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड जारी किया जाना चाहिए, ताकि उन्हें समय पर पर्याप्त राशि उपलब्ध हो सके। ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स ने किसानों को दिए जाने वाले ऋण को बढ़ाने के लिए ओरिएंटल ग्रीन कार्ड (OGC) एवं ओरिएंटल किसान गोल्ड कार्ड (OKGC) योजना की शुरुआत की है, जिससे किसानों को कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए आवश्यक ऋण सुविधाएं प्राप्त हो सके।
. ग्रामीण मजदूरों को आत्मनिर्भर बनाने एवं उन्हें कुशल व्यवसायिक बनाकर उनके कारोबार को बढ़ाने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए। भारत सरकार ने स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना के माध्यम से इस दुष्कर कार्य को पूरा करने के लिए कृषक मजदूरों में आशा पल्लवित की है। इस कार्य में सरकारी क्षेत्र के बैंक भी अपना योगदान दे रहे हैं। ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स ने ग्रामीण क्षेत्र के सभी मजदूर एवं कारीगरों के लिए ओरिएंटल ग्रामीण स्वरोजगार कार्ड (ध्उएण्) के माध्यम से समस्या रहित ऋण प्रदान किया जा रहा है।

नई राष्ट्रीय कृषिनीति

[1] केन्द्र सरकार द्वारा नई राष्ट्रीय कृषि नीति की घोषणा २८ जुलाई, २००० को संसद में की गई। इस कृषि नीति में सरकार ने अगले दो दशकों के लिए कृषि क्षेत्र में प्रतिशत की वृद्धि का लक्ष्य रखा है।
[1] विश्व व्यापार संगठन (WTO) के प्रावधानों के कारण कृषि क्षेत्र के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों को ध्यान में रखकर तैयार की गई नई कृषि नीति का उद्देश्य घरेलू माँग को पूरा करते हुए भारत को कृषि निर्यात में अग्रणी बनाना है।
[1] नई कृषि नीति में ठेके पर खेती द्वारा निजी क्षेत्र का सहयोग लेने, किसानों के लिए कृषि उत्पादों के मूल्य को संरक्षित करने, सभी कृषकों को राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना के अंतर्गत लाने तथा कृषि वस्तुओं के अन्तर्राज्यीय आवागमन की रुकावटों को समाप्त करने सम्बंधी प्रावधान हैं।
[1] इस नई कृषि नीति का वर्णन `इन्द्रधनुषी या सतरंगी क्राँति' (Rainbow Revolution) के रूप में किया गया है जिसके अंतर्गत हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, नीली क्रांति, लाल क्रांति, सुनहरी क्रांति,  भूरी क्रांति, रजत क्रांति, खाद्यान्न शृंखला क्रांति आदि एक साथ संचालित की जाएगी।

कृषि जीन बैंक
[1] भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् ने देश में कृषि पदार्थों के डी.एन.. िंफगर प्रिन्ट का केन्द्र स्थापित किया है। इसके माध्यम से किसी भी कृषि पदार्थ की जीन स्तर पर प्रामाणिक पहचान की जाती है।
[1] वर्ष १९८८ में स्थापित भारत का कृषि जीन बैंक विश्व के कुछ सर्वोत्तम बैंकों में से एक है। पिछले १७ साल के कठिन परिश्रम से इस बैंक में अब तक लगभग एक लाख ८० हजार जीन नमूने एकत्र किए जा चुके हैं जिनकी संख्या त्वरित कार्य प्रणाली से १० लाख किए जाने का लक्ष्य है।

टर्मिनेटर बीज तथा ट्रेटर प्रौद्योगिकी
[1] टर्मिनेटर बीजों की प्रमुख विशेषता यह है कि उन्हें केवल एक बार ही फसल के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। फसल लेने के पश्चात् अगली फसल के लिए किसानों को पुन: नया बीज कम्पनियों से ही खरीदना पड़ेगा। टर्मिनेटर बीजों के प्रति राष्ट्रव्यापी विरोध के चलते भारत सरकार ने ऐसे बीजों के भारत में आयात की अनुमति नहीं दी है।
[1] बहुराष्ट्रीय बीज कम्पनियाँ आजकल मनचाहे गुणों वाले ट्रेटर बीजों का पेटेन्ट कराने में लगी हैं। ट्रेटर प्रौद्योगिकी के बल पर बीज कम्पनियाँ बीजों में मनचाहे जींस (Genes) का समावेश करके किसी पौध विशेष में मनचाहे गुण/लक्षण जोड़ या घटा सकती है।
[1] ट्रेटर प्रौद्योगिकी से कम्पनियों ने केवल फसलों के प्राकृतिक जीन ढाँचे से बल्कि पशुधन के जीन ढाँचे से भी मनचाहा बदलाव कर सकेंगी।
[1] राष्ट्रीय किसान आयोग - फरवरी, २००४ में भारत सरकार ने, भारतीय किसानों के समक्ष विभिन्न मामलों की जाँच करने और बागवानी, पशुधन, डेरी तथा मात्स्यिकी सहित कृषि विविधिकरण की आर्थिक व्यवहार्यता तथा स्थिरता को सुधारने के लिए उचित हस्तक्षेपों का सुझाव देने और किसानों की आय को दोगुना बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय कृषक आयोग का गठन किया था। इस आयोग का नवम्बर, २००४ में पुनर्गठन किया गया था।
[1] अधिक अन्न उपजाओ अभियानयह कार्यक्रम वर्ष १९४२ में प्रारम्भ होकर स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् तक चलता रहा। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य अन्न की कमी को पूरा करना था जो द्वितीय विश्व युद्ध के कारण पैदा हो गई थी।
[1] इण्डियन विलेज सर्विसवर्ष १९४५ में डब्लू.एच. विशर के नेतृत्व में यह सेवा अगसौली (जनपद अलीगढ़, .प्र.) नामक गाँव में प्रारम्भ हुई। लेकिन वर्ष १९४७ के विभाजन के पश्चात् ग्राम साथी श्री एम.वी. सिद्दीकी खान के पाकिस्तान चले जाने के कारण यह केन्द्र बन्द करना पड़ा।
[1] राष्ट्रीय विस्तार सेवावर्ष १९५३ में अधिक अन्न उपजाओ समिति ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था जिसमें सारे देश में राष्ट्रीय विस्तार  सेवा (N.E.S.) लागू करने का सुझाव दिया गया। ये सेवाएँ २ अक्टूबर, १९५३ से प्रारम्भ कर दी गई, ताकि दस साल की अवधि में सारे भारत भर में कृषि विस्तार का कार्य सुचारु रूप से प्रारम्भ किया जा सके।
[1] अन्नपूर्णा योजनानिर्धन एवं बेसहारा वरिष्ठ नागरिकों को नि:शुल्क खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए केन्द्र सरकार के ग्रामीण विकास मन्त्रालय ने इस योजना को अप्रैल, २००० से प्रारम्भ किया `अन्नपूर्णा योजना' का विस्तार १४ जनवरी, २००१ से किया गया है। यह योजना मूलत: निर्धनता रेखा से नीचे के ऐसे वरिष्ठ नागरिकों (६५ वर्ष से अधिक आयु के लोगों) के लिए प्रारम्भ की गई थी, जो राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन के पात्र थे तथा किन्हीं कारणों से यह पेंशन प्राप्त नहीं कर पा रहे थे।
[1] अन्नपूर्णा योजना के तहत पात्र वरिष्ठ नागरिकों को प्रति माह १० किग्रा. अनाज नि:शुल्क उपलब्ध कराने का प्रावधान है वर्ष २००२-०३ से यह योजना राज्यों को आन्तरित कर दी गई है।
[1] स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना (SGSY)─गाँवों में रहने वाले गरीबों के लिए स्वरोजगार की एक अकेली योजना १ अप्रैल, १९९९ को प्रारम्भ की गई। इस योजना में पूर्व से संचालित हो रही योजनाओं का विलय किया गया
[1] स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना में दी जाने वाली धनराशि केन्द्र और राज्य सरकारें ७५ : २५ के अनुपात में विभाजित करेंगी। इस योजना का उद्देश्य सहायता प्राप्त प्रत्येक परिवार को वर्ष की अवधि में गरीबी रेखा से ऊपर उठाना है। कम-से-कम ५० प्रतिशत  अनु. जाति/जनजाति, ४० प्रतिशत महिलाओं तथा प्रतिशत विकलांगों को योजना का लक्ष्य बनाया गया है। आगामी वर्षों में प्रत्येक विकास खण्ड में रहने वाले ग्रामीण गरीबों में से ३० प्रतिशत को इस योजना के दायरे में लाने का प्रस्ताव है।
[1] I.R.D.P. की शुरुआत १९८० में प्रारम्भ की गयी है।
[1] प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना- ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन-स्तर के लिए महत्त्वपूर्ण, सामाजिक तथा आर्थिक आधारभूत ढाँचे के : क्षेत्रों स्वास्थ्य, पेयजल, शिक्षा, आवास तथा सड़कें, ग्रामीण विद्युतीकरण में किए जा रहे प्रयासों में तेजी लाने के लिए प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना की शुरुआत २०००-०१ के दौरान सभी राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में की गई थी।
[1] सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (SGRY)─इस योजना का शुभारम्भ प्रधानमन्त्री द्वारा २५ सितम्बर, २००१ को फरह (जिलामथुरा) से किया गया। यह योजना रोजगार आश्वासन, जवाहर ग्राम समृद्धि एवं काम के बदले अनाज कार्यक्रम योजनाओं को विलय करके प्रारम्भ की गई। इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अतिरिक्त सुनिश्चित अवसर उपलब्ध कराने के साथ-साथ खाद्यान्न उपलब्ध कराना भी है।
[1] इस योजना का खर्च केन्द्र तथा राज्यों में ७५ : २५ अनुपात के आधार पर बाँटा जाता है, जबकि खाद्यान्न घटक की सम्पूर्ण लागत केन्द्र सरकार वहन करती है। योजना के संचालन में सालाना ,५०० करोड़ रुपये केन्द्र सरकार द्वारा तथा ,५०० करोड़ रुपये राज्य सरकारों द्वारा व्यय किये जाएँगे।
[1] इस योजना के अन्तर्गत लाभार्थियों को किलो अनाज के साथ अतिरिक्त नकद राशि प्रतिदिन की मजदूरी के बदले प्रदान की जाती है।
[1] अंत्योदय अन्न योजना (A.A.Y.)─ यह योजना २५ दिसम्बर, २००० को निर्धनों को खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से प्रारम्भ की गई। इसके तहत देश के एक करोड़ निर्धनतम परिवारों को रियायती दर पर प्रतिमाह ३५ किग्रा. खाद्यान्न प्रदान किया जाता है। इस योजना के तहत जारी किए जाने वाले गेहूँ चावल का केन्द्रीय निर्गम मूल्य क्रमश: रुपये रुपये प्रति किग्रा है।
[1] राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा)
सितम्बर, २००५ में अधिनियमित और फरवरी, २००६ को पिछड़े २०० जिलों में लागू किया गया। अप्रैल, २००८ से यह योजना भारत के सभी जिलों में लागू कर दी गई है।
[1] राष्ट्रीय दलहन विकास योजनाकेन्द्र द्वारा उत्तर प्रदेश में संचालित है। इस परियोजना का ७५ प्रतिशत व्यय भार भारत सरकार द्वारा तथा २५ प्रतिशत व्यय भार प्रदेश सरकार द्वारा वहन किया जाता है। इस परियोजना का उद्देश्य प्रदेश के उन चयनित जनपदों में जहाँ दलहनी फसलों का अधिक क्षेत्रफल है तथा उत्पादन वृद्धि की पर्याप्त सम्भावनाएँ विद्यमान हैं समस्त संस्तुत क्रियाओं को संघनीकृत करके प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादकता में वृद्धि करके प्रदेश के दलहन उत्पादन में वृद्धि लाना है।
[1] तिलहनतकनीकी मिशन- तिलहन उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए वर्ष १९८५-८६ में राष्ट्रीय तिलहन विकास योजना का शुभारम्भ किया गया। वर्ष १९९६-९७ में तिलहन उत्पादन ट्रस्ट कार्यक्रम का भी संचालन किया गया जो कि १०० प्रतिशत केन्द्र सरकार द्वारा वित्त पोषित था। राष्ट्रीय तिलहन वर्ष ९०-९१ में एकीकृत करके तिलहन उत्पादन कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया, जिसमें ७५ प्रतिशत अंशदान भारत सरकार २५ प्रतिशत अंशदान राज्य सरकार द्वारा किया जा रहा है। वर्तमान में तिलहन उत्पादन कार्यक्रम राज्य के ६८ जनपदों में संचालित किया जा रहा है।

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