Tuesday, 12 February 2019

कक्षा -12 N.C.E.R.T अपठित गदयांश Page-3

कक्षा -12
N.C.E.R.T

अपठित गदयांश



8. जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित है। कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्ति की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपने पेशे या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण, जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर, के अनुसार पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।
जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती, बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है, भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्राय: आती है, क्योंकि उद्योग-धंधे की प्रक्रिया तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता हो तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा हो, भले ही वह उसमें पारंगत है। इस प्रकार पेशा-परिवर्तन की अनुमति देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।
प्रश्न
() कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है?
(
) जाति-प्रथा के सिद्धांत को दूषित क्यों कहा गया है?
(
) “जाति-प्रथा पेशे का केवल दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण करती है, बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे से बाँध देती है।”-कथन पर उदाहरण सहित टिप्पणी कीजिए।
(
) भारत में जाति-प्रथा बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण किस प्रकार बन जाती है?
(
) जाति-प्रथा के दोषपूर्ण पक्ष कौन-कौन-से हैं?
(
) जाति-प्रथा बेरोजगारी का कारण कैसे बन जाती है?
(
) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए
1.    गद्यांश में सेइकऔरइतप्रत्ययों से बने शब्द छाँटकर लिखिए।
2.    समस्तपदों का विग्रह कीजिए और समास का नाम लिखिए श्रम-विभाजन, माता-पिता।
() उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर
() कुशल या सक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि हम जातीय जड़ता को त्यागकर प्रत्येक व्यक्ति को इस सीमा तक विकसित एवं स्वतंत्र करें, जिससे वह अपनी कुशलता के अनुसार कार्य का चुनाव स्वयं करे। यदि श्रमिकों को मनचाहा कार्य मिले तो कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण स्वाभाविक है।
(
) जाति-प्रथा का सिद्धांत इसलिए दूषित कहा गया है, क्योंकि वह व्यक्ति की क्षमता या रुचि के अनुसार उसके चुनाव पर आधारित नहीं है। वह पूरी तरह माता-पिता की जाति पर ही अवलंबित और निर्भर है।
(
) जाति-प्रथा व्यक्ति की क्षमता, रुचि और इसके चुनाव पर निर्भर होकर, गर्भाधान के समय से ही, व्यक्ति की जाति का पूर्वनिर्धारण कर देती है, जैसे-धोबी, कुम्हार, सुनार आदि।
(
) उद्योग-धंधों की प्रक्रिया और तकनीक में निरंतर विकास और परिवर्तन हो रहा है, जिसके कारण व्यक्ति को अपना पेशा बदलने की जरूरत पड़ सकती है। यदि वह ऐसा कर पाए तो उसके लिए भूखे मरने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह पाता।
(
) जाति-प्रथा के दोषपूर्ण पक्ष निम्नलिखित हैं
पेशे का दोषपूर्ण निर्धारण।
अक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण।
देश-काल की परिस्थिति के अनुसार पेशापरिवर्तन पर रोका
(
) जाति प्रथा बेरोजगारी का कारण तब बन जाती है, जब परंपरागत ढंग से किसी जाति-विशेष के द्वारा बनाए जा रहे उत्पाद को आज के औद्योगिक युग में नई तकनीक द्वारा बड़े पैमाने पर तैयार किया जाने लगता है। ऐसे में उस जाति-विशेष के लोग नई तकनीक के मुकाबले टिक नहीं पाते। उनका परंपरागत पेशा छिन जाता है, फिर भी उन्हें जाति-प्रथा पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती। ऐसे में बेरोजगारी का बढ़ना स्वाभाविक है।
(
)
1.    प्रत्ययइक, इत प्रत्यययुक्त शब्द-स्वाभाविक, आधारित।
2.    समस्तपद         समास-विग्रह          समास क्रा नाम
श्रम-विभाजन     श्रम का विभाजन       तत्पुरुष समास
माता-पिता         माता और पिता         द्वंद्व समास
() शीर्षक-जाति-प्रथा।
9. जहाँ भी दो नदियाँ आकर मिल जाती हैं, उस स्थान को अपने देश मेंतीर्थकहने का रिवाज है। और यह केवल रिवाज की ही बात नहीं है; हम सचमुच मानते हैं कि अलग-अलग नदियों में स्नान करने से जितना पुण्य होता है, उससे कहीं अधिक पुण्य संगम स्नान में है। किंतु, भारत आज जिस दौर से गुजर रहा है, उसमें असली संगम वे स्थान, वे सभाएँ तथा वे मंच हैं, जिन पर एक से अधिक भाषाएँ एकत्र होती हैं।
नदियों की विशेषता यह है कि वे अपनी धाराओं में अनेक जनपदों का सौरभ, अनेक जनपदों के आँसू और उल्लास लिए चलती हैं और उनका पारस्परिक मिलन वास्तव में नाना के आँसू और उमंग, भाव और विचार, आशाएँ और शंकाएँ समाहित होती हैं। अत: जहाँ भाषाओं का मिलन होता है, वहाँ वास्तव में विभिन्न जनपदों के हृदय ही मिलते हैं, उनके भावों और विचारों का ही मिलन होता है तथा भिन्नताओं में छिपी हुई एकता वहाँ कुछ अधिक प्रत्यक्ष हो उठती है। इस दृष्टि से भाषाओं के संगम आज सबसे बड़े तीर्थ हैं और इन तीर्थों में जो भी भारतवासी श्रद्धा से स्नान करता है, वह भारतीय एकता का सबसे बड़ा सिपाही और संत है।
हमारी भाषाएँ जितनी ही तेजी से जगेंगी, हमारे विभिन्न प्रदेशों का पारस्परिक ज्ञान उतना ही बढ़ता जाएगा। भारतीय कि वे केवल अपनी ही भाषा में प्रसिद्ध होकर रह जाएँ, बल्कि भारत की अन्य भाषाओं में भी उनके नाम पहुँचे और उनकी कृतियों की चर्चा हो। भाषाओं के जागरण का आरंभ होते ही एक प्रकार का अखिल भारतीय मंच आप-से-आप प्रकट होने लगा है। आज प्रत्येक भाषा के भीतर यह जानने की इच्छा उत्पन्न हो गई है कि भारत की अन्य भाषाओं में क्या हो रहा है, उनमें कौन-कौन ऐसे लेखक हैं, हैं तथा कौन-सी विचारधारा वहाँ प्रभुसत्ता प्राप्त कर रही है।
प्रश्न
() लेखक ने आधुनिक संगम-स्थल किसको माना है और क्यों?
(
) भाषा-संगमों में भारत की किन विशेषताओं का संगम होता है?
(
) दो नदियों का मिलन किसका प्रतीक है?
(
) अलग-अलग प्रदेशों में आपसी ज्ञान किस प्रकार बढ़ सकता है?
(
) स्वराज-प्राप्ति के उपरांत विभिन्न भाषाओं के लेखकों में क्या जिज्ञासा उत्पन्न हुई?
(
) लेखक ने सबसे बड़ा सिपाही और संत किसको कहा है और क्यों?
(
) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए
1.    समानार्थी शब्द बताइएसौरभ, आकांक्षा।
2.    विपरीतार्थक शब्द बताइएभिन्नता, प्रत्यक्ष।
() उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर
() लेखक ने आधुनिक संगम-स्थल उन सभाओं मंचों को माना है, जहाँ पर एक से अधिक भाषाएँ एकत्रितहोती हैं। ये भा षाएँ विभिन्न जनपदों में बसने वाली जानता की भावनाएँ लेकर आती हैं।
(
) किसी भी भाषा के भीतर उस भाषा को बोलने वाली जनता के आँसू और उमंग, भाव और विचार, आशाएँ और शंकाएँ समाहित होती हैं। फलत: जहाँ भाषाओं का संगम होता है, वहाँ विभिन्न भाषा-भाषी लोगों के भावों और विचारों का संगम होता है।
(
) नदियाँ अपनी धाराओं के साथ मार्ग में आने वाले जनपदों के हर्ष एवं विषाद की कहानी लेकर बहती हैं। अत: उनका मिलन विभिन्न जनपदों के मिलन का ही प्रतीक है।
(
) भाषाएँ ही लाखों वर्षों तक ज्ञान-विज्ञान को सुरक्षित रखती हैं तथा ज्ञान का प्रचार-प्रसार करती हैं। अत: हम कह सकते हैं कि अलग-अलग प्रदेशों में आपसी ज्ञान तभी बढ़ सकता है, जब भारतीय भाषाएँ जागेंगी।
(
) स्वराज-प्राप्ति के उपरांत विभिन्न भाषाओं के लेखकों में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि भारत की अन्य भाषाओं में क्या हो रहा है। वे अन्य भाषाओं में भी अपनी प्रसिद्ध चाहने लगे तथा वे अन्य भाषाओं के कवियों एवं उनकी कृतियों के प्रति जिज्ञासु हो उठे।
(
) लेखक ने भाषाओं के संगम में गोता लगाने वाले श्रद्धालुओं को सबसे बड़ा सिपाही और संत कहा है। उसका मानना है कि भाषाओं का संगम, विभिन्न भाषा-भाषियों के भावों और विचारों का संगम होता है। वहाँ विभिन्नता में छिपी एकता मूर्त रूप लेती है और दर्शन करने वाला कोई देशभक्त सिपाही हो सकता है या संत।
(
)
1.    समानार्थी शब्द-खुशबू, इच्छा।
2.    विपरीतार्थक शब्द-अभिन्नता, परोक्ष।
() शीर्षक-भाषा-संगम : एकता का सूत्र।
10. विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतंत्रता परमावश्यक है-चाहे उस स्वतंत्रता में अभिमान और नम्रता दोनों का मेल हो और चाहे वह नम्रता ही से उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है।
युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वह बहुत कम बातें जानता है, अपने ही आदर्श से वह बहुत नीचे है और उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करे, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करे, ये बातें आत्ममर्यादा के लिए आवश्यक हैं। यह सारा संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है-हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे भोग, हमारे घर और बाहर की दशा, हमारे बहुत-से अवगुण और थोड़े गुण-सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं कि हमें अपनी आत्मा को नम्र रखना चाहिए।
नम्रता से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है, जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता है, जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मंद हो जाती है; जिसके कारण वह आगे बढ़ने के समय भी पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर चट-पट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य का बेड़ा उसके अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर ले जाए। सच्ची आत्मा वही है, जो प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच अपनी राह आप निकालती है।
प्रश्न
() ‘विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का. कोई अर्थ नहीं।इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(
) मर्यादापूर्वक जीने के लिए किन गुणों का होना अनिवार्य है और क्यों?
(
) नम्रता और दब्बूपन में क्या अंतर है?
(
) दब्बूपन व्यक्ति के विकास में किस प्रकार बाधक होता है? स्पष्ट कीजिए।
(
) आत्ममर्यादा के लिए कौन-सी बातें आवश्यक हैं? इससे व्यक्ति को क्या लाभ होता है?
(
) आत्मा को नम्र रखने की आवश्यकता किनकी-किनकी होती है?
(
) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए
1.    नम्रता, अनिवार्य का विलोम लिखिए।
2.    अभिमानऔरसंकल्पमें प्रयुक्त उपसर्ग एवं मूल शब्द लिखिए।
() उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर
() किसी भी व्यक्ति में स्वतंत्रता का भाव आते ही उसके मन में अहकार जाता है। इस अहकार के कारण वह अपनी मनुष्यता खो बैठता है। इससे व्यक्ति के आचरण में इतना बदलाव जाता है कि वह दूसरों को खुद से हीन समझने लगता है। ऐसे में स्वतंत्रता के साथ विनम्रता का होना आवश्यक है, अन्यथा स्वतंत्रता अर्थहीन हो जाएगी।
(
) मर्यादापूर्वक जीवन जीने के लिए मानसिक स्वतंत्रता आवश्यक है। इस स्वतंत्रता के साथ नम्रता का मेल होना आवश्यक है। इससे व्यक्ति में आत्मनिर्भरता आती है। आत्मनिर्भरता के कारण वह परमुखापेक्षी नहीं रहता। उसे अपने पैरों पर खड़ा होने की कला जाती है।
(
) दब्बूपन में व्यक्ति का संकल्प बुद्ध क्षीण होती है, वह त्वरित निर्णय नहीं ले सकता। वह अपने छोटे-छोटे कार्यों तथा निर्णय लेने के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। इसके विपरीत, नम्रता में व्यक्ति स्वतंत्र होता है। वह नेतृत्व करने वाला होता है। वह अपने निर्णय खुद लेता है और दूसरे का मुँह देखने के लिए विवश नहीं होता।
(
) दब्बूपन व्यक्ति के विकास में बाधक होता है क्योंकि इसके कारण वह दूसरे का मुँह ताकता है। वह निर्णय नहीं ले पाता। वह अपने संकल्प पर स्थिर नहीं रह पाता। उसकी बुद्ध कमजोर हो जाती है। इससे मनुष्य आगे बढ़ने की बजाय पीछे रह जाता है।
(
) आत्ममर्यादा के लिए अपने बड़ों का सम्मान करना, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करना आवश्यक है। इससे व्यक्ति को यह लाभ होता है कि वह आत्मसंस्कारित होता है, विनम्र और मर्यादित जीवन जीता है तथा उसे अपने पैरों पर खड़े होने में मदद मिलती है।
(
) आत्ममर्यादा के लिए आत्मा को नम्र रखने की आवश्यकता है। इस सारे संसार के लिए, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है, आदि सभी इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं। अर्थात हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हम जो कुछ खाते-पीते हैं, हमारे घर और बाहर की दशा, हमारे बहुत-से अवगुण यहाँ तक कि कुछ गुण भी आत्मा को नम्र रखने की आवश्यकता प्रकट करते हैं।
(
)
1.    शब्द विलोम नम्रत उद्दंडता अनिवार्य ऐच्छिक
2.    शब्द उपसर्ग मूल शब्द अभिमान ওলমি मान संकल्प सम् क्रलप
() शीर्षक-विनम्रता का महत्व।

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