कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन – अनुच्छेद
10. शीत युद्ध के बाद की भारत-नीति
सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व में एक ही महाशक्ति रह गई और शीत युद्ध समाप्त हो गया। ऐसे में भारतीय विदेश नीति में मूलभूत बदलाव आए हैं। पहले भारत की नीति स्वयं को दोनों गुटों में से किसी भी गुट में शामिल न होने देने की थी। आज भारत की विदेश व सुरक्षा नीति अधिक यथार्थवादी और भारत के मुख्य हितों को साधने वाली है। इस दिशा में भारत के नीतिकारों ने दक्षता से कदम उठाए। उन्होंने अमेरिका से रिश्ते बेहतर किए हैं। चीन के साथ तनाव कम किया है तथा उपेक्षित दक्षिण-पूर्वी देशों की ओर रुख किया है।
भारत के परमाणु व प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रमों को तेजी से आगे बढ़ाया गया है और 1991 के वित्तीय संकट से सीख लेते हुए घरेलू व आर्थिक नीतियों को यथार्थवादी रूप दिया गया है। इन बदलावों से देश उभरती हुई वैश्विक व्यवस्था में अप्रासंगिक होने से बच गया। इन सुधारों के बावजूद भारत के सामने अनेक चुनौतियाँ हैं। एशिया व अन्य क्षेत्रों में चीन की लगातार मजबूत होती आर्थिक व सैन्य शक्ति से निपटने के लिए भारत को अपनी रणनीति तय करनी है। पाकिस्तान से निपटने के लिए सक्षम नीति बनाने की जरूरत है।
कश्मीर में शांति बहाल करना आवश्यक है और अमेरिका के साथ पनपे बेहतर रिश्तों को सँभालना है। साथ-साथ वैश्विक स्तर पर भारत को अमेरिका व यूरोपीय समुदाय के साथ मिलकर विश्व-पर्यावरण में बदलाव, आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार-व्यवस्था जैसे मुद्दों पर काम करना चाहिए। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भारत को मानव पूँजी में निवेश की आवश्यकता है। लंबे समय तक भारत के विदेश और सुरक्षा नीतिकार चुनौतियों का सामना करने के लिए केवल नौकरशाही विशेषज्ञता पर निर्भर रहे, लेकिन अब उनके अलावा रक्षा व विदेश नीति के विशेषज्ञ भी चाहिए।
भविष्य में आने वाले मुद्दों का मुकाबला विभिन्न विषयों के योग्य जानकारों के बगैर कठिन होगा। अत: देश को बेहतर अध्ययन कार्यक्रमों और अंतर्राष्ट्रीय व कूटनीतिक अध्ययन के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों का विकास करने तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में कार्यक्रमों को मजबूत बनाने की जरूरत है। नीतिकारों को इन लक्ष्यों को पाने के लिए राष्ट्रीय सहमति बनाने के प्रयास करने चाहिए। राष्ट्रीय सहमति के बिना देश विचारधारा पर आधारित पुरानी नीतियों पर लौट सकता है। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद ठोस नीतियों के चुनाव ने भारत को क्षेत्रीय व वैश्विक मामलों में अभूतपूर्व स्थान दिया है। अब भारत को अपनी स्थिति मजबूत बनाए रखनी चाहिए।
11. तनाव : आधुनिक जीवन-शैली की देन
आज मनुष्य विकास के उच्चतम स्तर पर पहुँच चुका है, परंतु वह और अधिक की लालसा कर रहा है। इसकी वजह से वह एक नई बीमारी की गिरफ़्त में आ रहा है। वह है-तनाव। तनाव एक मानसिक प्रक्रिया है। यह हमारे दिमाग में हमेशा रहता है। घटनाएँ तनाव का कारण नहीं हैं, बल्कि मनुष्य इसे कैसे समझता या प्रभावित होता है, यह तनाव का कारण है। तनाव शक्तिशाली चीज है। यह या तो बहुत अच्छा हो सकता है, या नुकसान का कारण हो सकता है। यह बहती नदी के समान है। जब मनुष्य इस पर बाँध बनाता है तो वह पानी की दिशा को अन्य स्थान की ओर अपनी इच्छा से बदल सकता है, परंतु जब नदी पर बाँध नहीं होता तो वह बहुत विनाश करती है। तनाव भी ऐसा ही है। आज समाज में तनाव से एक बहुत बड़ा तबका ग्रस्त है।
मनुष्य हमेशा किसी-न- किसी उधेड़बुन में रहता है। ऐसा नहीं है कि तनाव पुराने युग में नहीं होता था। तब भी तनाव होता था परंतु बहुत कम होता था। आधुनिक जीवन-शैली से निरर्थक तनाव उत्पन्न हो रहा है; जैसे-बिजली का चला जाना, बच्चे का सही ढंग से होमवर्क न करना, भीड़ के कारण हर समय ट्रेन या बस छूटने का भय, दफ़्तर, स्कूल आदि गंतव्य पर सही समय पर न पहुँचने का भय, मीडिया द्वारा प्रचारित भय।
मनुष्य स्वयं को अमर या सर्वाधिक सुखी करना चाहता है, परंतु वह अपनी क्षमता व साधनों का ध्यान नहीं रखता। मनुष्य थोड़े समय में अधिक काम करना चाहता है। वह हमेशा जीतना चाहता है। अत: आज मानव नकारात्मक प्रवृत्ति से ग्रस्त है। उसे हर कार्य में नुकसान होने का भय रहता है। तनाव रहने से मनुष्य विभिन्न व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है। मनुष्य निराशाजनक जीवन जीने लगता है। वह चिड़चिड़ा, गुस्सैल प्रवृत्ति का हो जाता है।
वस्तुत: तनाव हमारे जीवन के ‘लाभ-हानि खाते’ में उधार की प्रविष्टि है। जब मनुष्य अपनी मुश्किलों को हल नहीं कर पाता तो वह तनावग्रस्त हो जाता है। ये मुश्किलें वास्तविक विचार के न होने के कारण हैं। इसलिए मनुष्य को अधिक-से-अधिक अच्छे विचार सोचने चाहिए। मनुष्य को रचनात्मक ढंग से नए तरीके से व धैर्य से खुशी को ढूँढ़ना चाहिए। थोड़े समय में अधिक पाने की इच्छा त्याग देनी चाहिए।
मनुष्य को व्यापार के इस सिद्धांत का पालन करना चाहिए—अच्छे को बेहतर का दुश्मन न बनाइए। मनुष्य को अपनी मनोवृत्ति सकारात्मक बनानी चाहिए। मनुष्य का मस्तिष्क बहुत बड़ी भूमि के समान है यहाँ वह खुशी या तनाव उगा सकता है। दुर्भाग्य से यह मनुष्य का स्वभाव है कि अगर वह खुशी के बीज बोने की कोशिश न करे तो तनाव पैदा होता है। खुशी फसल है और तनाव घास-फूस है।
12. मानवतावाद बनाम आतकवाद
अथवा
आतंकवाद के बढ़ते चरण
अथवा
आतंकवाद के बढ़ते चरण
‘मानवतावाद” और ‘आतंकवाद” सर्वथा दो विरोधी अवधारणाएँ हैं। मानवतावाद के मूल में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘विश्व-बंधुत्व’ की भावना है। यह ‘संपूर्ण विश्व एक परिवार है’ का संदेश देता है। इसके मूल में सह-अस्तित्व की भावना है जबकि आतंकवाद अलगाववाद पर आधारित है। आतंकवाद में मानवीय संवेदनाओं का स्थान नहीं होता। पिछले कुछ दशकों से जिस समस्या ने विश्व को सबसे अधिक आक्रांत किया है, वह है-विश्वव्यापी आतंकवाद। आतंकवाद वह प्रवृत्ति है, जिसमें कुछ लोग अपनी आकांक्षा की पूर्ति के लिए हिंसात्मक और अमानवीय साधनों का प्रयोग करते हैं।
आतंकवाद का मुख्य उद्देश्य होता है शासन व्यवस्था को अपने अनुकूल फैसला लेने हेतु मजबूर करना। हालाँकि बेरोजगारी, अशिक्षा, सामाजिक-आर्थिक विषमताएँ आदि कारणों से किसी देश अथवा जाति का असंतुष्ट वर्ग देश से अलग होने, पृथक् राज्य स्थापित करने की माँग उठाता है और अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए पूरे देश तथा समाज को आतंकित करता है तथा इसके लिए अनेक बर्बर उपाय अपनाता है। आतंकवाद का स्वरूप या उद्देश्य कुछ भी हो, इसका भौगोलिक क्षेत्र कितना ही सीमित या विस्तृत क्यों न हो, आज इसने हमारे जीवन को अनिश्चित और असुरक्षित बना दिया है।
भारत के विभिन्न भागों में हो रही आतंकवादी गतिविधियों ने देश की राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा पैदा कर दिया है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण कश्मीर में देखने को मिल रहा है। कश्मीर के काफी बड़े भाग पर पाकिस्तान ने अनाधिकृत रूप से कब्जा कर रखा है। शेष कश्मीर को हथियाने के लिए वह कश्मीर के भोले-भाले नवयुवकों के मन में उन्माद पैदा करके उन्हें आतंकवाद के रास्ते पर ढकेल रहा है। फलत: समूची कश्मीर घाटी हिंसा की आग में जल रही है। इसी प्रकार के स्वार्थपूर्ण कारणों से आज आतंकवाद की समस्या विश्वव्यापी हो गई है।
सामान्यत: संसार के सभी देश इसके विरुद्ध संगठित हो रहे हैं। आतंकवाद मानव-जाति के लिए कलंक है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि इसका समूल नाश किया जाए। कोई भी देश इस प्रकार के आतंकवादी संगठनों को प्रश्रय न दे और न किसी प्रकार उनकी सहायता करे। आतंकवाद जैसी समस्या का समाधान बौद्धिक और सैनिक दोनों स्तरों पर किया जाना चाहिए। विश्व की सभी सरकारों को अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद के विरुद्ध परस्पर सहयोग करना चाहिए ताकि कोई भी आतंकवादी गुट कहीं शरण या प्रशिक्षण न पा सके। आतंकवाद के समाप्त होने पर ही मानवता का स्वप्न पूरा हो सकेगा।
13. वैश्वीकरण
संचार तथा परिवहन के विकास, नई-नई वैज्ञानिक तकनीकों तथा सूचना प्रौद्योगिकी के विकास से आज न केवल भौगोलिक दूरियाँ कम हुई हैं, बल्कि संसार के विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के बहुत निकट आ रहे हैं। इस प्रकार विश्व के राष्ट्रों के निकट आने की प्रक्रिया को ही ‘वैश्वीकरण’ कहा जा रहा है। विश्व के विकसित देशों के पास तकनीक है तो विकासशील और अविकसित राष्ट्रों के पास कच्चा माल और सस्ता श्रम। आज सभी विकासात्मक कार्यों और समस्याओं की व्याख्या विश्व-स्तर पर होती है। इसलिए विश्व-बंधुत्व की भावना को बढ़ावा मिल रहा है।
वैश्वीकरण में निरंतर बढ़ते औद्योगिक विकास तथा संचार के साधनों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। मुद्रण कला तथा इलेक्ट्रॉनिक के विकास से हमें समाचार-पत्रों, रेडियो, दूरदर्शन आदि के द्वारा विश्व के किसी भाग में घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी तत्काल मिल जाती है। उसकी विश्वव्यापी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक है।
टेलीफोन, ई-मेल, फ़ैक्स के द्वारा हम अविलंब देश-विदेश में स्थित अपने मित्रों, संबंधियों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों से संपर्क कर सकते हैं। यातायात के साधन आज इतने विकसित और सुविधाजनक हो गए हैं कि हम अल्प समय में ही हम विश्व के किसी भी हिस्से में पहुँच जाते हैं। संचार एवं यातायात के विकसित साधनों के कारण व्यक्ति के जीवन-स्तर में अंतर आया है।आज हम
विभिन्न देशों में बनी वस्तुओं का उपभोग करते हैं। विभिन्न देशों के बीच व्यापारिक संबंध बढ़ रहे हैं। प्राकृतिक विपदाओं में भी राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग मिल जाता है। इस प्रकार से एक वैश्विक संस्कृति के उदय होने की संभावना बढ़ती जा रही है। प्रकृति ने संपूर्ण विश्व को भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिस्थितियाँ दी हैं। जिसके कारण उन स्थानों की कृषि तथा अन्य उत्पादनों की गुणवत्ता और मात्रा में भी अंतर है। इस स्थिति में जहाँ जिस वस्तु का अभाव रहता है उसकी पूर्ति अन्य देशों से कर ली जाती है। इसी कारण उद्योगपति प्रत्येक स्तर की आवश्यकताओं और माँगों को ध्यान में रखकर अपेक्षित उत्पादन करते हैं।
यदि आज मानव सुखी, शांतिपूर्ण और उन्नत जीवन व्यतीत करना चाहता है तो इसके लिए आवश्यक है कि अधिकाधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और सद्भावना में वृद्धि हो और विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के पूरक बनें। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि वर्तमान वैश्वीकरण के मूल में विकसित देशों के औद्योगिक प्रतियोगिता की भावना निहित है। इस क्षेत्र में जो देश आगे हैं, वे विकासशील और अविकसित
देशों में अपनी पूँजी लगाने, अपना उद्योग स्थापित करने, वहाँ के कच्चे माल और सस्ते श्रम का उपयोग करके अधिकाधिक लाभ उठाने की होड़ में लगे हैं। इस होड़ में वे देश अधिक सफल तो हो रहे हैं किंतु उनकी इस प्रतियोगिता से उन देशों की प्रगति रुक जाने का भय है जो तकनीकी और प्रौद्योगिकी दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। इससे विकसित और अविकसित देशों के बीच की खाई के और भी बढ़ जाने की आशंका है।
वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया में विकासशील और अविकसित देशों को यह सावधानी बरतनी होगी कि वे इस होड़ में विकसित देशों के आर्थिक शोषण के शिकार न बनें तथा इसका उनके औद्योगिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। तभी वैश्वीकरण की भावना समता और सहयोग पर आधारित होगी और समूचे विश्व का विकास तथा कल्याण होगा और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का हमारा स्वप्न साकार होगा।
14. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
मन सांसारिक बंधनों का और उनसे छुटकारा पाने का सबसे प्रबल माध्यम है। कहा भी गया है-
” मन एवं मनुष्याणा करणं बाँध – मोक्षयो:।”
अर्थात मन ही व्यक्ति के बंधन व मोक्ष का कारण है। वस्तुत: मन मानव के व्यक्तित्व का वह ज्ञानात्मक रूप है जिससे उसके सभी कार्य संचालित होते हैं। मन में मनन करने की शक्ति होती है। यह संकल्प-विकल्प का पूँजीभूत रूप है। मननशीलता के कारण ही मनुष्य को चिंतनशील प्राणी की संज्ञा दी गई है। यदि यह मान लिया जाए कि मन से प्रेरित होकर व्यक्ति सारे कार्य करता है तो यह उक्ति सर्वथा सत्य है कि मन के हारने से बड़े-बड़े संकल्प धराशायी हो जाते हैं और जब तक मन की संकल्प शक्ति नहीं टूटती, तब तक व्यक्ति कठिन-से-कठिन कार्य को करने में भी असफल नहीं होता।
फलत: सफलता या असफलता उस कर्म के प्रति व्यक्ति की आसक्ति की मात्रा निर्भर होती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो मन की शक्ति के परिचायक हैं। शिवाजी द्वारा मुगलों पर विजय, गांधी के सत्य और अहिंसा के प्रति अटूट विश्वास से अंग्रेजों का भागना, सरदार पटेल की दृढ़ इच्छा-शक्ति से भारतीय रियासतों का एकीकरण आदि उदाहरण हमारे सामने हैं। गुरु नानक ने भी ‘मन जीते जग जीत’ कहकर मन की संकल्प शक्ति पर प्रकाश डाला है। गीता में भगवान कृष्ण ने दुर्बल अर्जुन को शक्ति का संदेश नहीं दिया, अपितु मन से हारने वाले अर्जुन को मानसिक दृढ़ता का संदेश दिया। महाबली कर्ण भी अंत में मन की दुर्बलता के कारण पराजित हुआ। राष्ट्रकवि दिनकर ने ‘रश्मिरथी’ में मन की अजेय शक्ति का वर्णन किया है-
दो वीरों ने किंतु लिया कर आपस में निपटारा हुआ जयी राधेय और अर्जुन इस रण में हारा।
मन की संकल्प शक्ति अद्भुत होती है। मन ही अच्छे-बुरे का निर्णय करता है। मन के निर्णय के अनुसार ही मानव-शरीर कार्य करता है। मनोबल के बिना मनुष्य निर्जीव ढाँचा बनकर रह जाता है। मुसीबतों को देखकर जीवन-यात्रा से क्लांत नहीं होना चाहिए। हमें मन मैं कभी भी निराशा की भावना नहीं लानी चाहिए। हिम्मत के बलबूते पर हम अपने सभी कार्य सिद्ध कर सकते हैं। कहा भी गया है
“हारिए न हिम्मत, बिसारिए न हरिनाम। “
15. मेरे जीवन का लक्ष्य
जीवन एक यात्रा के समान है। जिस प्रकार यात्रा प्रारंभ करने से पहले व्यक्ति अपना गंतव्य स्थान निश्चित करता है, वैसे ही हमें भी अपनी जीवन-यात्रा प्रारंभ करने से पहले अपना कार्य-क्षेत्र निर्धारित कर लेना चाहिए। हर विद्यार्थी को अपने जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य निश्चित कर लेना चाहिए। लक्ष्यहीन जीव स्वच्छंद रूप से सागर में छोड़ी हुई नाव के समान होता है। ऐसी नौका या तो भेंवर में डूब जाती है या चट्टान से टकराकर चूर-चूर हो जाती है। मैंने भी अपने जीवन में अध्यापक बनने का निश्चय किया है। मैं उस कर्म को श्रेष्ठ समझता हूँ, जिससे व्यक्ति अपना व अपने परिवार का तो कल्याण कर ही सके, साथ ही समाज को भी दिशा-निर्देश दे सके।
अध्यापक का कार्य भी कुछ इसी प्रकार का है। वह सरस्वती के मंदिर का एक ऐसा पुजारी है जो मनुष्य को सच्चा मानव बनाता है। बिना विद्या के मनुष्य बिना सींग और पूँछ के चलता-फिरता पशु है। महादेवी जी का कहना है-‘विकसते मुरझाने को फूल, उदय होता छिपने को चंद” अर्थात फूल मुरझाने के लिए विकसित होता है और चाँद छिपने के लिए, किंतु फूल मुरझाने से पहले अपनी सुगंध का प्रसार करता है और चाँद भी छिपने से पहले अपनी शीतल चाँदनी से संसार को आनंदित करता है। इस तरह में व्यक्ति की योग्यता को तब तक सार्थक नहीं समझता जब तक वह समाज के लिए लाभदायक न हो।
अध्यापक यह कार्य करने की सर्वाधिक क्षमता रखता है। मेरा विश्वास है कि शिक्षा के समुचित विकास के बिना कोई भी नागरिक न अपने अधिकारों को सुरक्षित रख सकता है और न कभी दूसरों के अधिकारों का सम्मान कर सकता है। मैं एक शिक्षक बनकर शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाने का प्रयत्न करूंगा। प्रचलित शिक्षा-पद्धति में अनेक कमियाँ हैं। अंग्रेजों का उद्देश्य भारत में सस्ते क्लर्क पैदा करना था।
अत: उन्होंने गुलाम मानसिकता प्रदान करने वाली शिक्षा-व्यवस्था बनाई जो चंद परिवर्तनों को छोड़कर आज भी ज्यों-की-त्यों लागू है। मैं इस क्षेत्र में कुछ परिवर्तन करना चाहूँगा। विद्यालय परिसर के बाहर भी विद्यार्थियों के साथ अत्यंत निकट का संपर्क स्थापित करूंगा और हर विद्यार्थी की योग्यता व रुचि को समझने का प्रयत्न करूंगा।
पढ़ाई के साथ-साथ कला, शिल्प आदि सिखाने का भी भरसक प्रयास करूंगा, जिससे विद्यार्थी केवल नौकरी पर आश्रित न रहे, अपितु वह अन्य क्षेत्रों में भी रोजगारपरक कार्य कर सके। साथ-साथ मैं
सदैव शिक्षा, सद्व्यवहार और सहानुभूति द्वारा विद्यार्थियों में श्रेष्ठ भाव उत्पन्न करने का प्रयत्न करूंगा। इस प्रकार अध्यापक ही बच्चों को मानवता और विश्व-बंधुत्व का पाठ पढ़ाता है। इसीलिए कबीर ने गुरु को गोविंद से भी उच्च आसन पर आसीन किया है-
सदैव शिक्षा, सद्व्यवहार और सहानुभूति द्वारा विद्यार्थियों में श्रेष्ठ भाव उत्पन्न करने का प्रयत्न करूंगा। इस प्रकार अध्यापक ही बच्चों को मानवता और विश्व-बंधुत्व का पाठ पढ़ाता है। इसीलिए कबीर ने गुरु को गोविंद से भी उच्च आसन पर आसीन किया है-
” गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागौं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो बताय।।”
अत: मैं भी सफल और श्रेष्ठ अध्यापक बनकर विद्यार्थियों के मनमंदिर का देवता बनने का सौभाग्य प्राप्त करूंगा।बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो बताय।।”
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