Tuesday, 12 February 2019

कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन – अनुच्छेद कक्षा -12 N.C.E.R.T Page-4

कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन – अनुच्छेद
16. जो तोको काँटा बोवै, ताहि बोउ तू फूल
आमतौर पर व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आता है तो उसके व्यवहार की दो स्थितियाँ होती हैं-पहली में वह अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता है तथा दूसरी स्थिति में व्यक्ति असमान व्यवहार करता है। अर्थात बुराई करने वाले के साथ भलाई या भलाई करने वाले के साथ बुराई करता है। हलाँकि बुराई के बदले भलाई करने वाला व्यक्ति महान होता है। सामान्यत: जीवन को देखने-विचारने के दृष्टिकोण इन्हीं व्यवहारों की दृष्टियों से बने हैं।

सज्जनता व दुर्जनता एक-दूसरे की कसौटी हैं। सज्जन की कसौटी दुर्जन है तो पुण्य की कसौटी पाप है। जो व्यक्ति प्रकृति से सज्जन होता है, वह कभी बुरा कार्य नहीं करता। मनुष्य जीवन की सच्ची सार्थकता स्वयं को सत्पथ पर ले जाने में है। वह बुराई छोड़कर अच्छाई को ग्रहण करे और आगे बढ़ता जाए। हमारे समाज में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि मनुष्य बुरों को क्षमा करता है। राम, पांडव, श्री कृष्ण आदि महापुरुषों ने सदैव बुराइयों का विरोध किया। महात्मा बुद्ध ने अपनी जान लेने वाले को भी क्षमा कर दिया।

महात्मा गांधी ने अपने हत्यारे को माफ़ किया। इससे यह सिद्ध होता है कि महान व्यक्ति ही इस विचार का पालन अपने जीवन में कर सकते हैं। महान व्यक्ति लाभ-हानि से प्रेरित होकर कोई काम नहीं करते हैं। जो लोग यह मानते हैं कि मनुष्य के सत्कर्म ही उसके जीवन की सबसे बड़ी पूँजी हैं वे अपने व्यवहार में त्याग, तप, परोपकार को सर्वोच्च स्थान देते हैं। ऐसे लोग यह चिंता नहीं करते कि उन्होंने किससे कैसा व्यवहार पाया और उत्तर में कैसा व्यवहार देना है?

वे अपनी अँगुली काटने वाले को भी क्षमा करके उसके प्रति भलाई करते हैं। ऐसे विचारक अहिंसावादी जीवन-दर्शन को मानकर भक्ति-भाव, परोपकार की स्थापना व्यक्ति-विशेष के लिए ही न करके सबके लिए करते हैं। भलाई और बुराई के साथ एक तथ्य यह भी है कि यदि व्यक्ति दूसरों की भलाई करना नहीं छोड़ता तो बुराई को कभी-न-कभी पराजय का मुँह देखना ही पड़ता है। शक्ति सत्य में है, असत्य में नहीं।

असत्य का फल चमकते हुए रेत की तरह जल का भ्रम पैदा कर सकता है, किंतु वह जल कदापि नहीं होता। इस प्रकार यह सिद्धांत आदर्शवादी रूप से मान्य हो सकता है कि जो हमारे साथ बुराई करे, हम उसके साथ भलाई करें, किंतु यथार्थ की दृष्टि से और आज के युग को देखते हुए यह सिद्धांत व्यावहारिक नहीं है।

17. सबै दिन होत एक समान


व्यक्ति का जीवन सदैव एक जैसा नहीं रहता। वह कभी सुख का तो कभी दुख का अनुभव करता है। इसका प्रमुख कारण समय की परिवर्तनशीलता है। वस्तुत: मानव-जीवन के सभी दिन एक समान नहीं होते। उनमें परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तन होता रहता है। अत: मनुष्य को न तो गर्व करना चाहिए और न अधिक संतप्त। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी किसी बात के कारण अधिक गर्व करते हैं और अपने सामान्य परिचित व्यक्तियों से कम ही मिलते हैं, फिर कुछ समय व्यतीत होने पर जब उनके गर्व का कारण नष्ट हो जाता है तो उन्हें असली हालत में आना होता है!

‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में मिहिरदेव कहता है-“राजनीति ही मनुष्यों के लिए सब कुछ नहीं है। राजनीति के पीछे नीति से भी हाथ न धो बैठो, जिसका विश्व और मानव के साथ व्यापक संबंध है।” इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य को मानवता का त्याग नहीं करना चाहिए। वस्तुत: समाज में नित नवीन परिवर्तन देखने को मिलते हैं। इतिहास परिवर्तन का ही परिणाम है। किसी समय में भारत विश्व के संपन्न देशों में से एक था, आज उसकी गिनती गरीब देशों में की जाती है।

प्रगति की दौड़ में हम आज भी कई क्षेत्रों में बहुत आगे हैं तो कई क्षेत्रों में बहुत पीछे। आजादी का दुरुपयोग हो रहा है। समाज के हर क्षेत्र में परिवर्तन दिखाई दे रहा है। सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक क्षेत्र में भारी उथल-पुथल हो रही है। समाज की एकता व सौहाद्रभाव समाप्ति के कगार पर हैं। सामाजिक स्तर गिर रहा है। इस परिवर्तन से हमें निराश नहीं होना चाहिए। समय कभी एक जैसा नहीं रहता। बिना परिवर्तन के व्यक्ति सुख-दुख का अनुभव नहीं कर सकता। परिवर्तन की आशा में ही व्यक्ति कर्मरत रहता है। अत: प्रतिकूल समय में धैर्य बनाए रखना चाहिए। रहीम ने कहा है- .

रहिसन चुप हर्वे बैठिए, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहें बनत न लागे दर।।

बुरे दिनों में व्यक्ति को अधिक-से-अधिक सहनशील बनना चाहिए क्योंकि सहनशीलता से कष्टकारक दिन समाप्त हो जाते हैं। समय बीतने पर कष्ट समाप्त हो जाता है और व्यक्ति के बिगड़े हुए काम बन जाते हैं। यह उक्ति संपन्न व सुखी व्यक्तियों के लिए नसीहत देती है ताकि वे अपने से कमजोर के साथ उपयुक्त व्यवहार करें और साथ ही दुखी व कमजोर व्यक्तियों के लिए धैर्य धारण करने का संदेश देती है। मनुष्य के हाथ में कार्य करना है। वह अपनी इच्छानुसार फल प्राप्त नहीं कर सकता। अत: उसे कार्य करते रहना चाहिए। व्यक्ति अपने जीवन के विषय में कुछ नहीं कह सकता। मनुष्य अभाव में भी कुछ पाने की कल्पना करता हुआ कर्ममय बन सकता है।
18. परनिंदा : मनोरंजन का साधन


प्रशंसा और निंदा करना मनुष्य के स्वभाव में है। जो उसे अच्छा लगता है, उसकी प्रशंसा और जो बुरा लगता है, उसकी निंदा, उसके मुँह से निकल ही जाती है। निंदा एक रहस्यमय कार्य-व्यापार है जिसे हम समाज से छिपाकर करते हैं; दिल खोलकर करते हैं। निंदक बनने के लिए किसी डिग्री या डिप्लोमा की जरूरत नहीं होती। यह तो अभ्यास के द्वारा अपने-आप बढ़ने वाली शक्ति है। इसके लिए सर्वाधिक आवश्यकता है उस शक्ति की जिससे गुणों का हाथी दिखाई न दे और जो दोषों की राई को पहाड़ बना सके। निंदा रस समाज में सबसे व्यापक रस है।

निंदा और प्रशंसा के विषयों में तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि प्रशंसा के विषय कम हैं जबकि निंदा के विषय असंख्य। जिस चीज को आप चाहें, निंदा का विषय बना सकते हैं। भगवान के इस रंगीन जगत से प्रभावित होने वाले बहुत-से होंगे, पर इसे अधूरा बताने वाले दार्शनिकों की भी कमी नहीं है। निंदा करने वाले को तटस्थ भाव से निंदा करनी चाहिए। उसे अच्छे-बुरे का विवेक उठाकर ताक पर धर देना चाहिए।

यदि ऐसा नहीं तो अच्छा और आदर्श निंदक बनना किसी के लिए भी संभव नहीं। अच्छे निंदक बनने का काम भी एक तपस्या है। इसके लिए ‘निंदा की पूरी तकनीक’ जान लेना जरूरी होगा। सबसे पहले यह जानना चाहिए कि जिसकी निंदा की जा रही है और जिसके सामने निंदा की जा रही है, उनके संबंध कैसे हैं, कहीं वह उसका रिश्तेदार तो नहीं। ऐसे मामले में सावधानी से काम लेना चाहिए। इसके अलावा, निंदा के स्थूल रूप की अपेक्षा निंदा का सूक्ष्म रूप ग्रहण करना चाहिए। किसी को

साफ़-साफ़ गालियाँ देने की अपेक्षा ‘किंतु’, ‘परंतु’ में बात करनी चाहिए- वे’? आदमी, देवता हैं, किंतु बेवकूफ हैं। इसके अतिरिक्त, निंदा करते वक्त अपनी बात को विश्वसनीय बनाने के लिए कुछ मुहावरों का प्रयोग करना चाहिए; जैसे-‘ कसम तुम्हारी, झूठ बोल्यूँ तो नरक में जाऊँ’ आदि-आदि। किसी की निंदा किसी के प्रति प्रेम का प्रमाण भी है। भगवान के प्रति प्रेम उसकी स्तुतियाँ करके भी प्रकट किया जा सकता है, रावण या कंस को गालियाँ सुनाकर भी। तटस्थ को भी इसमें मजा आता है। प्रेमी अपनी प्रेमिका की प्रशंसा में सभी ‘रूपसियों’ को पनिहारिन सिद्ध कर देता है और प्रेमिका मान जाती है। परनिंदा कर आनंद अद्भुत होता है। इससे गोस्वामी तुलसीदास भी अछूते नहीं रह पाए हैं। उन्होंने लिखा है—

जन्म सिंधु पुनि बंधू बिस, दिनहि मलिन सकलंक ।
सिय मुख समता पाव किमि, चंद बापुरे रंक।।

निंदा रस मनोरंजन का सस्ता, विश्वसनीय, सुरक्षित व सर्वोत्तम साधन है। आनंद पाने का इससे अचूक नुस्खा ढूँढ़े नहीं मिलेगा। यह रस लोकरंजक भी है, लोकरक्षक भी। यह प्रेम से अधिक विस्तृत, वेदना से अधिक मधुर है। निंदा करने वाला कभी पछताता नहीं है। यह मनुष्य के अहं की ढाल है तो दूसरे के अहं के लिए तलवार।
19. करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान
मानव-जीवन में कर्म की प्रधानता है। कर्म अभ्यास के साथ जुड़ा है। अभ्यास का अर्थ है-किसी काम को करने का निरंतर प्रयत्न। किसी काम को करने से वांछित सफलता नहीं मिलती तो उसे निरंतर प्रयत्न करते रहना चाहिए। काम करते रहने पर भी सफलता मिलने पर मनुष्य काम करना छोड़ देता है। महापुरुषों ने ऐसी स्थिति में निरंतर काम करने की प्रेरणा दी है-
देखकर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं।
निरंतर अभ्यास करने से मूख भी ज्ञानी हो जाता है जैसे पत्थर पर रस्सी के बार-बार आने-जाने से पत्थर पर निशान पड़ जाते हैं। यह कार्य-कुशलता का मूलमंत्र है। शरीर को सुडौल बनाने के लिए निरंतर व्यायाम आवश्यक है। विद्यार्थी को कोई चीज बार-बार याद करनी पड़ती है। कवि भी तभी प्रखर बनता है जब वह अभ्यास करता है। भारतीय काव्यशास्त्र में अभ्यास को प्रतिभा का उत्कर्ष बताया गया है।
अभ्यास से कई लाभ होते हैं। इससे मानव की कार्य-कुशलता बढ़ती है। इससे मनुष्य कार्य की कठिनाइयों के विषय में सिद्धहस्त हो जाता है और पुनरावृत्ति करने पर उसे कठिनाइयाँ कम लगती हैं। इससे ज्ञान में वृद्धि होती है। अभ्यास के प्रसंग में यह भी विचारणीय है कि अभ्यास व्यक्ति स्वयं करता है या उसके लिए किसी के निर्देश की आवश्यकता होती है। यदि व्यक्ति स्वयं अभ्यास करता है तो उसमें पूर्णता नहीं पाती क्योंकि उसे अभ्यास के तरीकों में सिद्धहस्तता प्राप्त नहीं होगी। किसी विशेषज्ञ के निर्देशन में किया गया अभ्यास अधिक लाभदायक होता है।
अभ्यास के द्वारा व्यक्ति ज्ञान की विभिन्न धाराओं का परिचय प्राप्त करता है। यह विशेष प्रकार की आदत का निर्माण कर देता है। यह आदत कई रूपों में काम देती है। अभ्यास के कारण ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ग्लैडस्टोन मंच पर बोल सके। कालिदास की कहानी के बारे में सभी जानते हैं। पं० जवाहरलाल नेहरू को अपने विद्यार्थी-जीवन में भाषण देने पर जुर्माना देना पड़ा था, परंतु आजादी की लड़ाई में भाषण देने का अभ्यास किया और शीघ्र ही जनता पर छा गए। इस प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में सफलता के लिए अभ्यास की जरूरत होती है।
अभ्यास मानव-जीवन के लिए वह पारस पत्थर है जिसका स्पर्श पाकर लोहा भी सोना हो जाता है। यह बिल्कुल सही है कि जड़ बुद्ध वाला व्यक्ति भी अभ्यास से सीख सकता है। उसकी अज्ञानता समाप्त हो जाती है। सफलता के लिए अभ्यास नितांत आवश्यक है। ठीक ही कहा गया है
करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं।।
20. परोपकार का महत्व
अथवा
परहित सरिस धर्म नहिं भाई
परहित सरिस धर्म नहीं भाई।’ ‘ अथवा, अपने लिए जिए तो क्या जिए।
परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं होता है। परोपकार की भावना प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है। सूर्य, चंद्र, वायु नि:स्वार्थ भाव से संसार की सेवा में लीन हैं। नदियाँ कभी अपना जल नहीं पीतीं। वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते। बादल भी दूसरों की भलाई के लिए अपने अस्तित्व का बलिदान करते हैं। मैथिलीशरण गुप्त भी कहते हैं-
निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी।
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी।।
मनुष्य धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। इसमें परोपकार की भावना बहुत पुराने समय से चली रही है। शिव, दधीचि, कर्ण, महाराजा हरिश्चंद्र आदि को परोपकार के कारण ही याद किया जाता है। महर्षि दयानंद का उदाहरण किसी से छिपा नहीं है, परंतु आज इस भावना में बदलाव गया है। आज जब हम किसी व्यक्ति पर उपकार करना चाहते हैं या करते हैं तो हम उसमें स्वार्थ देखते हैं। दूसरे, हम परोपकार करने के बहाने दूसरे को परजीवी बना रहे होते हैं।
परोपकार की भावना का संबंध समाज से है, समूचे देश से है। गांधी जी ने परोपकार में अपना पूरा जीवन लगा दिया। आचार्य भावे भी हर समय परोपकार में लगे रहते थे। ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन परोपकार के लिए समर्पित कर दिया। एक अकेला व्यक्ति परोपकार कर सकता है। किसी एक को परोपकार करते देखकर समाज के दूसरे लोग साथ आकर जुड़ जाते हैं और एक संगठन बन जाता है।
परोपकार को आज हम समाज-सेवा या समाज-कल्याण के नामों से पुकारते हैं। परोपकार के अंतर्गत वैयक्तिक सेवा-कार्य व्यक्ति से संस्था में निवास तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि उसके समाज से पूर्ण रूप से समायोजन तक चलाना चाहिए। चूँकि ये संस्थाएँ समस्याग्रस्त व्यक्ति का पुनर्वास करती हैं, अत: प्रारंभ से लेकर जब तक व्यक्ति के समाज से, कार्यकर्ता से और स्वयं से सामान्य व्यक्ति के रूप में स्वीकृति मिल जाए, व्यक्ति को ये सेवाएँ प्रदान की जानी चाहिए।
वैयक्तिक सेवा-कार्य समाज-सेवा की एक ऐसी विधि है जिसमें समस्याग्रस्त व्यक्ति की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक आर्थिक समस्याओं का उद्घाटन करके समाज के साथ समायोजन करने में उसकी सहायता की जाती है। परहित के लिए हमें पुरानी परंपराओं से प्रेरणा लेनी होगी तभी परहित किया जा सकता है। हमें स्वार्थ से हटकर कार्य करना चाहिए। भारतीय संस्कृति में परोपकार की भावना इस प्रकार व्यक्त की गई है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु , मा कश्चिद दुःख भाग भवेत्।।
21. चरित्र : सर्वश्रेष्ठ धन
मनुष्य जीवनपर्यत जिस तत्व की रक्षा करने के लिए चिंतित रहता है-वह है उसका चरित्र। चरित्र के रूप में हम मनुष्य के संपूर्ण कार्यकलाप आचरण को शामिल करते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य जो कुछ करता है, उससे उसका चरित्र बनता है। चरित्र की महत्ता का वर्णन इस कथन स्पष्ट हो जाता है – “If wealth is lost, nothing is lost, if health is lost, something is lost, if character is lost, everything is lost.” चरित्र के नष्ट होने से धन, सत्ता, स्वास्थ्य का कोई महत्व नहीं रह जाता। सफल मानव वह है जो भयंकर बाधाओं में भी अपने जीवन-मूल्यों को नहीं छोड़ता और जीवन रूपी नैया को पार लगाता है।
वह दुनिया के आकर्षणों से दिग्भ्रमित नहीं होता, विधाता के विधान से नहीं घबराता। ऐसे मनुष्य संपूर्ण मानव-जाति के लिए प्रकाश-स्तंभ का कार्य करते हैं। चरित्र-शक्ति से ही मानव-जीवन सफल बनता है। यह शक्ति मनुष्य को आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, शौर्य, कार्यचातुर्य आदि की धात्री है। इसी के कारण मनुष्य निभीक होकर कार्य करता है। इस शक्ति से निर्मित व्यक्ति आतंक भय से नहीं घबराता क्योंकि इस शक्ति के सम्मुख विरोधी की पाशविक शक्ति भी झुक जाती है।
महात्मा गांधी, महात्मा बुद्ध, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद आदि की चारित्रिक शक्ति से विरोधियों को परास्त होना पड़ा था। हर मानव-जीवन के आदर्श के अनुसार अपने चरित्र का संगठन करता है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो उसे कदम-कदम पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है। चरित्र के बिना वह आदर्श जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। अत: चरित्र-शक्ति की महती आवश्यकता है। इसमें वह शक्ति विद्यमान है जो विद्या, बुद्ध और संपत्ति में नहीं। हलाँकि कुछ लोग चरित्र से तात्पर्य कामपरक आचरण की पवित्रता से लेते हैं। यह धारणा पूर्णतया सही नहीं है।
कामपरक आचरण चरित्र का अंग है, साथ ही चरित्र में गुण कार्य-क्षमता का भी समावेश है। चोरी करने वाला, शराब पीने वाला, कामचोर, रिश्वतखोर आदि व्यक्ति कामपरक दृष्टि से अच्छा होने के बावजूद चरित्रवान नहीं कहे जा सकते। मन और तन की पवित्रता के साथ कर्मपरक शुद्धता भी चरित्र का अंग होती है। यदि कोई व्यक्ति देशद्रोह करता है तो वह सबसे भ्रष्ट चरित्र का होता है।
समाज की सेवा, परोपकार, गरीब व्यक्तियों की सहायता आदि सभी कार्य चरित्र के अंतर्गत आते हैं। इस प्रकार चरित्र का रूप व्यापक है। यह व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक जीवन को अपने में समाहित करता है। मानव-जीवन की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने चरित्र को ऊँचा बनाए तथा उसके आधार पर आने वाले व्यक्तियों को भी शिक्षा दे। चरित्रवान व्यक्तियों के कारण ही समाज राष्ट्र का चरित्र बनता है।

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