कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन – अनुच्छेद
22. भारतीय समाज में अंधविश्वास
जीवन को व्यवस्थित करने के लिए मानव ने नियमों की संकल्पना की जिन्हें ‘धर्म’ की संज्ञा दी गई। इन नियमों का उद्देश्य मानव-जीवन को सुखी, संपन्न व व्यवस्थित बनाना था। समय बदलने के साथ-साथ कुछ नियम अप्रासंगिक हो गए और वे अंधविश्वास का रूप धारण करने लगे। आधुनिक युग में ये अंधविश्वास प्रगति में बाधक सिद्ध हो रहे हैं।
भारतीय समाज के अनेक विश्वास जीवन की गतिशीलता के साथ न चलने के कारण पंगु हो गए हैं। इन अंधविश्वासों में धर्म की रूढ़िबद्धता, आभूषण-प्रेम, जादू-टोने में विश्वास, देवी-देवताओं के प्रति अबौद्धक श्रद्धा आदि सामाजिक कुरीतियाँ हैं। ये कुरीतियाँ आज देश की प्रगति में बाधक सिद्ध हो रही हैं। उदाहरणस्वरूप हमारे धर्म में कर्म के अनुसार जाति-प्रथा का विधान किया गया, परंतु बाद में उसे जन्म के आधार पर मान लिया गया। आज उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो गई है, परंतु आरक्षण, जातिगत श्रेष्ठता के भाव संघर्ष का कारण बने हुए हैं। इसी तरह मुसलमानों के आगमन से देश में छुआछूत की भावना को बढ़ावा मिला।
युद्धों में गिरफ़्तार लोगों को मुसलमानों के हाथ का खाना पड़ता था, फलत: हिंदू समाज उन्हें बहिष्कृत कर देता था या उन्हें अस्पृश्य मान लिया जाता था। उनके साथ भोजन करना, उठना-बैठना आदि तक निषेध कर दिया गया। इससे समाज खोखला हुआ। इसी प्रकार भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग जादू-टोने में विश्वास रखता है। हालाँकि मीडिया के प्रसार व बौद्धिकता बढ़ने से जादू-टोने का जाल कम होने लगा है। फिर भी यदा-कदा नरबलि, सती-प्रथा आदि की घटनाएँ प्रकाश में आती ही रहती हैं। इसके अतिरिक्त समाज में अनेक तरह के अपशकुन अब भी प्रचलित हैं, जैसे बिल्ली द्वारा रास्ता काटा जाना, कोई काम शुरू करते समय किसी को छींक आना, पीछे से आवाज देना, चलते हुए अँधेरा होना आदि।
कई लोग इनके कारण अपने महत्वपूर्ण काम तक रोक देते हैं। हमारे समाज का सबसे बड़ा अंधविश्वास समग्र रूप में परंपराओं के प्रति अंधभक्ति है। आज भी हम अनेक अव्यावहारिक बातों से जुड़े हुए हैं। फलित ज्योतिष विद्या के नकली धनी इस प्रकार के विश्वास की आड़ में अपना पेट भरते हैं। लड़की के जन्म को अशुभ मानना, विवाह में सामथ्र्य से अधिक व्यय आदि भी इन्हीं अंधविश्वासों की उपज है। अब तो धर्मगुरुओं की एक ऐसी ‘जमात’ तैयार हो चुकी है जो आस्था के नाम पर जनता को भ्रमित कर रहे हैं। मीडिया भी इसमें पूरे मनोयोग से सहयोग कर रही है।
आवश्यकता इस बात की है कि धर्म के वास्तविक रूप को समझकर आचरण करें और अपनी प्रगति करें। समाज की चाहिए कि नए जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चले और अंध परंपराओं को सदा के लिए दफ़न कर दे।
23. परीक्षा की तैयारी
परीक्षा प्रत्येक प्रकार की शिक्षा के लिए अनिवार्य है। बिना परीक्षण के कोई वस्तु प्रयोग में नहीं लाई जाती अथवा वस्तु का महत्व नहीं जाना जा सकता और न ही उसका परिणाम जाना जा सकता है। बिना परिणाम के उसकी लाभ-हानि नहीं निकाली जा सकती। इसलिए वस्तु को प्रयोग में लाने से पूर्व परीक्षण किया जाता है। यही बात प्रत्येक परीक्षा पर लागू होती है। परीक्षा के बिना शिक्षा का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता और न स्तर ज्ञात किया जा सकता है।
परीक्षा को बहुत कठिन मानकर विद्यार्थी भयभीत होता है। वह सोचता है कि परीक्षा आ रही है, अब क्या होगा? पर यह बात प्रत्येक विद्यार्थी पर लागू नहीं होती। जो विद्यार्थी प्रारंभ से ही सुचारु रूप से अध्ययन करते हैं, उनके सामने यह समस्या नहीं आती। परीक्षा समस्या उन विद्यार्थियों के लिए है, जिनका मन कहीं और होता है तथा आँखें किताब पर टिकी होती हैं। ऐसे विद्यार्थी को पाठ किस प्रकार याद हो सकता है? परीक्षा की तैयारी तो नए सत्र के आरंभ से ही योजना बनाकर शुरू कर देनी चाहिए।
हर कक्षा का पाठ्यक्रम कक्षा के स्तर के अनुसार बोर्ड या विश्वविद्यालय बनाता है। इसको आधार बनाकर शिक्षक विद्यार्थी को परीक्षा हेतु शिक्षा देता है। विद्यार्थी को चाहिए कि वह हर रोज अपने कक्षा-कार्य व गृहकार्य को याद करता रहे। ज्यों-ज्यों पाठ्यक्रम पढ़ाया जाए, अगला पाठ याद करने के साथ-साथ पिछले पाठों की दोहराई भी नियमित रूप से करता रहे। कक्षा में पाठ को ध्यानपूर्वक सुनें, घर पर इसका अध्ययन करके स्मरण करें।
विद्यार्थी को चाहिए कि वह प्रतिदिन प्रात:काल उठकर पूर्व पढ़ाए गए पाठ का स्मरण करे और पढ़ाए जाने वाला पाठ पढ़कर जाए। इस प्रकार के अध्ययन करने वाले विद्यार्थी को पढ़ाया गया पाठ शीघ्र समझ में आता है। समय-समय पर लिखकर भी इसका अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार के अभ्यास से परीक्षा में लिखने की तैयारी हो जाती है। लिखते समय प्रश्न संतुलन का भी ध्यान रखना चाहिए जिससे समय से सभी प्रश्नों का समुचित उत्तर दिया जा सके।
‘ज्यों-ज्यों भीजें कामरी, त्यों-त्यों भारी होय ‘अर्थात जो छात्र ऐसा नहीं करते, वे अध्ययन सुचारु रूप से नहीं करते उन्हें धीरे-धीरे पाठ्यक्रम पहाड़-सा लगने लगता है। वे असफल हो जाते हैं और अपना जीवन कष्ट में डाल देते हैं। अत: विद्यार्थी को चाहिए कि वे नियमबद्ध होकर परीक्षा की तैयारी करें। परीक्षा किसी भी प्रकार की हो, उससे कभी भयभीत नहीं होना चाहिए।
24. नारी शिक्षा
शिक्षा के बिना व्यक्ति का जीवन अधूरा होता है। किसी ने ठीक कहा है-‘बिना पढ़े नर पशु कहलावै’ अक्षरश: सत्य है। अच्छाई- बुराई का निर्णय शिक्षित व्यक्ति ही ले पाता है। शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। मनुष्य से हमारा तात्पर्य पुरुष एवं नारी दोनों से है। विशेष रूप से समाज में नारी जगत की अनदेखी प्रारंभ से ही की जा रही है। इसका कारण उनकी अशिक्षा रही है। उन्हें घर की चारदीवारी में बंद करके मात्र सेविका अथवा मनोरंजन का साधन समझा जाता रहा है। इसका परिणाम यह हुआ कि नारी हर क्षेत्र में पिछड़ गई। नारी सबको जन्म देने वाली है।
अत: उस पर सब तरह के प्रतिबंध लगाना पूर्णतया अनुचित है। प्रतिबंध लगाने वाले यह भूल जाते हैं कि बालक पर नारी के संस्कारों का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। नारी के गुणों का समावेश किसी-न-किसी रूप में बच्चे में होता है। फलत: परिवार का संपूर्ण विकास नारी पर निर्भर होता है। अत: नारी का शिक्षित होना अति आवश्यक है। हालाँकि नारी को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार वैदिक काल में था। अनेक सूक्तों में महिला रचनाकारों का नाम मिलता है। वेद व पुराणों में स्पष्ट कहा गया है कि नारी के बिना पुरुष कोई भी कार्य संपन्न नहीं कर सकता।
महाभारत, रामायण आदि महाकाव्यों से पता चलता है कि नारी ने विजय प्राप्त करके धर्म की स्थापना में सहयोग दिया है। फिर भी मध्यकाल में नारियों पर नाना प्रकार के प्रतिबंध लगाए गए। हालाँकि आजादी के संघर्ष में भी नारियों ने कंधे-से-कंधा मिलाकर पुरुषों का साथ दिया। आज नारी जाग्रत हो चुकी है। नारी जाति की जागृति देखकर ही पुरुष को विवश होकर उसके लिए शिक्षा के द्वार खोलने पड़ रहे हैं। आज सरकार भी नारी-शिक्षा के लिए प्रयासरत है। सरकार अपने स्तर पर गाँव-गाँव में स्कूलों व कॉलेजों की स्थापना कर रही है तथा नारी-शिक्षा को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं को अनुदान देती है। आज मुक्त कंठ से कहा जा रहा है
‘पढ़ी – लिखी लड़की, रोशनी घर की। ‘
नारी-शिक्षा का ही परिणाम है कि आज प्रत्येक विभाग में नारी को स्थान मिल रहा है और वे उत्तम कार्य करके अपनी कार्यकुशलता का परिचय दे रही हैं। शिक्षित लड़कियाँ घर की जिम्मेदारियों का निर्वाह कर रही हैं। इससे दहेज-समस्या, पर्दा-प्रथा, शिशुहत्या आदि कुप्रथाओं में भारी कमी आई है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि नारियों को साथ लिए बिना देश का पूर्ण विकास संभव नहीं। इस विकास में एक कमी यह है कि नारी अभी भी पूरे देश में समग्र रूप से शिक्षित नहीं हो रही है। क्षेत्रों में शहरों की तुलना में काफी पिछड़ापन है। अत: नगरों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में नारियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
25. समाज-सुधारक : कबीर
अथवा
क्रांतिदशी कवि कबीर
अथवा
क्रांतिदशी कवि कबीर
कबीर निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख संत थे। पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने कहा भी है-
‘ मसि कागद छुओ नहीं, कलम गही नहिं हाथ।’
फिर भी कबीरदास की पैनी दृष्टि उनकी अनौपचारिक शिक्षा ग्रहण करने की पुष्टि करती है। कबीरदास ईश्वर के निराकार रूप के उपासक थे। उनका निराकार ईश्वर समस्त शक्तियों से युक्त तथा सर्वव्यापक है। उनका कहना है कि हिंदुओं का राम और मुसलमानों का रहीम उसी के रूप हैं। यह ईश्वर कण-कण तथा हर साँसों की साँस में समाया हुआ है।
इन्होंने ईश्वर के अनेक नाम बताए हैं-राम, हरि, निरंजन आदि; परंतु इनके राम दशरथपुत्र-राम नहीं हैं। इनके राम को पाने के लिए किसी ढोंग की जरूरत नहीं है। इसके लिए तिलक लगाने, माला जपने या तीर्थ-यात्रा करने की भी आवश्यकता नहीं है। उसे पाने के लिए अंदर की सच्चाई, एकाग्रता, अनन्यता की आवश्यकता है। कबीर ने भक्ति के आडंबर पर प्रहार करते हुए कहा है-
माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।
कर का मन का छोड़ के, मन का मनका फेर।
कर का मन का छोड़ के, मन का मनका फेर।
कबीर की भक्ति-साधना के मूल में प्रेम है। भक्ति का सार ही प्रेम है। उन्होंने परमात्मा की आराधना पति के रूप में की है। प्रियतम की राह देखते-देखते आत्मा जब व्याकुल हो जाती है तब प्रियतमा के प्रिय से मिलन के बाद ही साधना पूर्ण होती है। कबीरदास का लोकपक्ष सर्वाधिक प्रबल है। कबीरदास ने सामाजिक सुधारों पर बल दिया। उन्होंने ऊँच-नीच का भेदभाव मिटाने के लिए सबको समान स्तर पर समझने का प्रचार किया।
कबीर के लोकपक्ष के दो रूप हैं-व्यक्ति पक्ष और समाज पक्ष। इन दोनों पक्षों की दृष्टि से कबीर ने व्यक्ति के अहंकार को दूर करने का उपदेश दिया। अहंकार के कारण व्यक्ति स्वयं को दूसरे से बड़ा समझता है। इसी कारण सामाजिक संघर्ष बढ़ता है। कबीर ने धर्म के संकुचित व सांप्रदायिक रूप का विरोध करके एक लोकधर्म की स्थापना पर बल दिया। उन्होंने समाज के सभी गतिरोधों को दूर करने की बात कही है। सबसे बड़ा गतिरोध जाति-पाँति का था, अत: कबीर ने जाति का विरोध किया। उनका मानना था कि जाति का निर्माण ईश्वर ने नहीं, मनुष्य ने किया है।
कुल मिलाकर कबीरदास ने अपनी सधुक्कड़ी भाषा में जिस काव्य की रचना की उसका भाव पक्ष इतना प्रखर है कि भाषा उसके सामने लाचार दिखने लगती है। उन्होंने ब्रज, अवधी, राजस्थानी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है। उनके काव्य में गीत तत्व की प्रमुखता है। निष्कर्ष रूप से कबीर का काव्य सामाजिक कुरीतियों पर कठोर प्रहार करता है।
26. हिंदी साहित्य और स्वतंत्रता संघर्ष
किसी भी देश की उन्नति व अवनति उस देश के साहित्य पर ही अवलंबित है। कवि रवि से भी अधिक प्रकाश करता है। वह निजीव जाति में प्राण-प्रतिष्ठा करता है तथा निराश हृदयों में आशा का संचार करता है। हिंदी जगत के कवियों ने सदैव भारतवासियों को जगाया। स्वतंत्रता की पहली लड़ाई सन 1857 में लड़ी गई। इस लड़ाई में मिली असफलता के कारणों का कवियों ने विश्लेषण किया। भारतेंदु ने राष्ट्रीयता की चाँदनी बिखराई। उन्होंने भारत का अतीत व वर्तमान सुनाया-
रोवहु सब मिलिकै भारत भाहूँ।
हा! हा! मारत दुर्दशा न देखी जाई।
हा! हा! मारत दुर्दशा न देखी जाई।
कवि की वाणी से सुषुप्त संस्कार जागे और 1885 ई० में कांग्रेस की स्थापना हुई। इनके तुरंत बाद प्रेमधन, श्रीधर पाठक आदि ने भारतभूमि का गौरवगान किया। भारतेंदु युग के बाद देश के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में परिवर्तन आया। गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन को आगे बढ़ाया। इस युग में राष्ट्रीयता का रूप निखरा। कवियों ने स्वदेश-प्रेम की व्यंजना बलिदान की भावना से व्यक्त की। देश के सौंदर्य, उसके अतीत गौरव व साधन-संपन्नता के गीत गाए गए। प्रसाद के गीतों में यही अभिव्यंजना है-
अरुण यह मधुमय देश हमारा, जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज की मिलता एक सहारा।
मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत-भारती’ में भारत की दशा का वर्णन किया है-
मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत-भारती’ में भारत की दशा का वर्णन किया है-
भारत तुम्हारा आज यह कैसा भयंकर वेष है।
और सब निःशेष केवल नाम ती अवशेष है।
राम, हा हा कृष्ण हा हा नाथ, हा रक्षा करो।
मनुजत्व दो हमको दयामय, दुख दुर्बलता हरो।
और सब निःशेष केवल नाम ती अवशेष है।
राम, हा हा कृष्ण हा हा नाथ, हा रक्षा करो।
मनुजत्व दो हमको दयामय, दुख दुर्बलता हरो।
इस प्रकार गुप्त जी ने राष्ट्र को सावधान किया। इस प्रकार कवि ही परतंत्रता की कठोर बेड़ी में जकड़े हुए मूल भारतीयों के कवि वकील थे माखनलाल चुतर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आदि कवियों ने स्वतंत्रता आंदोलन को वाणी दी। सुभद्राकुमारी चौहान ने हुंकार कर कहा-
सोलह सहस्र असहयोगिनियो, दहला दें ब्रहमाड सखी।
भारत-लक्ष्मी लौटाने को, रच दें लंकाकांड सखी।
भारत-लक्ष्मी लौटाने को, रच दें लंकाकांड सखी।
इससे भारत के कण-कण से स्वतंत्रता की ध्वनि निकलने लगी। देश के नेताओं ने बलिदानों के गीत सुने और प्राणों की बाजी लगाने को कटिबद्ध हो गए। बंदी बने देश-प्रेमी ने रात्रि में कोयल का स्वर सुना। उसे उसकी स्वतंत्रता तथा अपनी परतंत्रता का मान होने लगा और वह गा उठा-
तेरे गीत कहावें वाह, रोना भी है मेरा गुनाह।
कबि बालकृष्ण शर्मा ने आहवान किया-
कबि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल – पुथल मच जाए।
भारतीयों ने वह तान सुनी और वे अंग्रेजों के खिलाफ़ खड़े हो गए। इस प्रकार कवियों की शंख-ध्वनि से उत्तेजित होकर गांधी जी के नेतृत्व में देश के कोने-कोने में स्वाधीनता की लहर फैल गई और फिर 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया। निष्कर्षत: यह भारतीय कवियों की ओजपूर्ण वाणी ही थी जिसने सोई हुई मानव-जाति को जगाया; जिसने प्राचीन गौरव का बखान किया; जिसने युवाओं में बलिदान का उत्साह जगाया; जिसने कुछ करने और मिटने की राह दिखाई।
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