कक्षा -12
N.C.E.R.T
अपठित गदयांश
14. आज हम इस असमंजस में पड़े हैं और यह निश्चय नहीं कर पाए हैं कि हम किस ओर चलेंगे और हमारा ध्येय क्या है? स्वभावत: ऐसी अवस्था में हमारे पैर लड़खड़ाते हैं। हमारे विचार में भारत के लिए और सारे संसार के लिए सुख और शांति का एक ही रास्ता है और वह है-अहिंसा और आत्मवाद का। अपनी दुर्बलता के कारण हम उसे ग्रहण न कर सके, पर उसके सिद्धांतों को तो हमें स्वीकार कर ही लेना चाहिए और उसके प्रवर्तन का इंतजार करना चाहिए। यदि हम सिद्धांत ही न मानेंगे तो उसके प्रवर्तन की आशा कैसे की जा सकती है। जहाँ तक मैंने महात्मा गांधी के सिद्धांत को समझा है, वह इसी आत्मवाद और अहिंसा के, जिसे वे सत्य भी कहा करते थे, मानने वाले और प्रवर्तक थे। उसे ही कुछ लोग आज गांधीवाद का नाम भी दे रहे हैं।
यद्यपि महात्मा गांधी ने बार-बार यह कहा था-“वे किसी नए सिद्धांत या वाद के प्रवर्तक नहीं हैं और उन्होंने अपने जीवन में प्राचीन सिद्धांतों को अमल कर दिखाने का यत्न किया।” विचार कर देखा जाए, तो जितने सिद्धांत अन्य देशों, अन्य-अन्य कालों और स्थितियों में भिन्न-भिन्न नामों और धर्मों से प्रचलित हुए हैं,सभी अंतिम और मार्मिक अन्वेषण के बाद इसी तत्व अथवा सिद्धांत में समाविष्ट पाए जाते हैं। केवल भौतिकवाद इनसे अलग है।
हमें असमंजस की स्थिति से बाहर निकलकर निश्चय कर लेना है कि हम अहिंसावाद, आत्मवाद और गांधीवाद के अनुयायी और समर्थक हैं, न कि भौतिकवाद के। प्रेय और श्रेय में से हमें श्रेय को चुनना है। श्रेय ही हितकर है, भले ही वह कठिन और श्रमसाध्य हो। इसके विपरीत, प्रेय आरंभ में भले ही आकर्षक दिखाई दे, उसका अंतिम परिणाम अहितकर होता है।
प्रश्न –
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) आज का मनुष्य असमंजस में क्यों पड़ा है?
(ग) लेखक के अनुसार, विश्व में सुख-समृद्ध और शांति कैसे स्थापित हो सकती है?
(घ) अहिंसा के बारे में लेखक का विचार स्पष्ट कीजिए।
(ड) आज गांधीवाद की संज्ञा किसे दी जा रही है?
(च) भौतिकवाद को छोड़कर अन्य सिद्धांतों और धर्मों में समानता है, कैसे? स्पष्ट कीजिए।
(छ) भौतिकवाद से क्या अभिप्राय है? मनुष्य को किसका समर्थक बनना चाहिए?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—
(ख) आज का मनुष्य असमंजस में क्यों पड़ा है?
(ग) लेखक के अनुसार, विश्व में सुख-समृद्ध और शांति कैसे स्थापित हो सकती है?
(घ) अहिंसा के बारे में लेखक का विचार स्पष्ट कीजिए।
(ड) आज गांधीवाद की संज्ञा किसे दी जा रही है?
(च) भौतिकवाद को छोड़कर अन्य सिद्धांतों और धर्मों में समानता है, कैसे? स्पष्ट कीजिए।
(छ) भौतिकवाद से क्या अभिप्राय है? मनुष्य को किसका समर्थक बनना चाहिए?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—
1. उपसर्ग, मूल शब्द और प्रत्यय पृथक कीजिए-दुर्बलता।
2. विशेषण बनाइए-सिद्धांत, निश्चय।
उत्तर –
(क) शीर्षक-श्रेय या प्रेय।
(ख) आज का मनुष्य असमंजस में इसलिए पड़ा हुआ है, क्योंकि वह दिग्भ्रमित है और यह निश्चय नहीं कर पा रहा है कि उसका जीवन-लक्ष्य क्या है और वह किस ओर चले। ऐसी स्थिति में मनुष्य के कदम उसका साथ नहीं दे पाते और वह कोई फैसला नहीं कर पाता।
(ग) लेखक के अनुसार विश्व में सुख-शांति और समृद्ध के लिए आवश्यक है कि लोग हिंसा का रास्ता त्याग दें और मन-वचन तथा कर्म से अहिंसा का पालन करें और आत्मवाद का मार्ग अपनाकर औरों की सुख-शांति के लिए सोचें।
(घ) अहिंसा के बारे में लेखक का विचार है कि अपनी कमजोरी के कारण हम भारतीय अहिंसा को न अपना सके, पर हमें अहिंसा के सिद्धांतों को स्वीकार कर लेना चाहिए और उसके प्रवर्तन का इंतजार करना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हम उसके सिद्धांत को मानें।
(ड) गांधी जी आत्मवाद और अहिंसा का पालन करते थे। इसी अहिंसा और आत्मवाद को वे मानते थे और उसका प्रवर्तन किया तथा इसे ही सत्य का नाम देते थे। उसी को आज गांधीवाद की संज्ञा दी जा रही है।
(च) भौतिकवाद को छोड़कर अन्य सिद्धांतों और धर्मों में समानता है, क्योंकि वे दूसरे देशों में अलग-अलग समय और परिस्थितियों में भले ही अलग-अलग नामों और धर्मों से प्रचलित हुए हैं, उन सभी में अंतिम और मार्मिक खोज के बाद सत्य और अहिंसा समाविष्ट पाए गए हैं।
(छ) भौतिकवाद से अभिप्राय उस सिद्धांत से है, जिसमें सांसारिक सुख-साधनों की प्रधानता रहती है। इन्हीं सुख-साधनों का अधिकाधिक प्रयोग ही जीवन का लक्ष्य मान लिया जाता है। मनुष्य को अहिंसावाद, आत्मवाद और सत्य का समर्थक बनना चाहिए, भौतिकवाद का बिलकुल भी नहीं।
(ज)
(ख) आज का मनुष्य असमंजस में इसलिए पड़ा हुआ है, क्योंकि वह दिग्भ्रमित है और यह निश्चय नहीं कर पा रहा है कि उसका जीवन-लक्ष्य क्या है और वह किस ओर चले। ऐसी स्थिति में मनुष्य के कदम उसका साथ नहीं दे पाते और वह कोई फैसला नहीं कर पाता।
(ग) लेखक के अनुसार विश्व में सुख-शांति और समृद्ध के लिए आवश्यक है कि लोग हिंसा का रास्ता त्याग दें और मन-वचन तथा कर्म से अहिंसा का पालन करें और आत्मवाद का मार्ग अपनाकर औरों की सुख-शांति के लिए सोचें।
(घ) अहिंसा के बारे में लेखक का विचार है कि अपनी कमजोरी के कारण हम भारतीय अहिंसा को न अपना सके, पर हमें अहिंसा के सिद्धांतों को स्वीकार कर लेना चाहिए और उसके प्रवर्तन का इंतजार करना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हम उसके सिद्धांत को मानें।
(ड) गांधी जी आत्मवाद और अहिंसा का पालन करते थे। इसी अहिंसा और आत्मवाद को वे मानते थे और उसका प्रवर्तन किया तथा इसे ही सत्य का नाम देते थे। उसी को आज गांधीवाद की संज्ञा दी जा रही है।
(च) भौतिकवाद को छोड़कर अन्य सिद्धांतों और धर्मों में समानता है, क्योंकि वे दूसरे देशों में अलग-अलग समय और परिस्थितियों में भले ही अलग-अलग नामों और धर्मों से प्रचलित हुए हैं, उन सभी में अंतिम और मार्मिक खोज के बाद सत्य और अहिंसा समाविष्ट पाए गए हैं।
(छ) भौतिकवाद से अभिप्राय उस सिद्धांत से है, जिसमें सांसारिक सुख-साधनों की प्रधानता रहती है। इन्हीं सुख-साधनों का अधिकाधिक प्रयोग ही जीवन का लक्ष्य मान लिया जाता है। मनुष्य को अहिंसावाद, आत्मवाद और सत्य का समर्थक बनना चाहिए, भौतिकवाद का बिलकुल भी नहीं।
(ज)
1. शब्द उपसर्ग मूल शब्द प्रत्यय
दुर्बलता दुर् बल ता
दुर्बलता दुर् बल ता
2. शब्द विशेषण
सिद्धांत सैद्धांतिक
निश्चय निश्चित
सिद्धांत सैद्धांतिक
निश्चय निश्चित
15. संस्कृति ऐसी चीज नहीं, जिसकी रचना दस-बीस या सौ–पचास वर्षों में की जा सकती हो। हम जो कुछ भी करते हैं, उसमें हमारी संस्कृति की झलक होती है; यहाँ तक कि हमारे उठने- ने, घूमने-फिरने और रोने-हँसने से भी हमारी संस्कृति की पहचान होती है, यद्यपि हमारा कोई भी एक काम हमारी संस्कृति का पर्याय नहीं बन सकता।
असल में, संस्कृति जीने का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से हम जमा होकर उस समाज में छाया रहता है, जिसमें हम जन्म लेते हैं। इस लिए, जिस समाज में हम पैदा हुए हैं अथवा जिस समाज से मिलकर हम जी रहे हैं, उसकी संस्कृति हमारी संस्कृति है; यद्यपि अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा कर रहे हैं, वे भी हमारी संस्कृति के अंग बन जाते हैं और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी संतानों के लिए छोड़ जाते हैं।
इसलिए संस्कृति वह चीज मानी जाती है, जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। यही नहीं, बल्कि संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मातर तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, उसका वैसा ही पुनर्जन्म भी होता है। जाब हम किसी बालक या बालिका को बहुत तेज पाते है, तब अचानक कह देते हैं कि वह पूर्वजन्म का संस्कार है। संस्कार या संस्कृति, असल में, शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है; और जबकि सभ्यता की मामांग्रेयों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है।
प्रश्न –
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक बताइए।
(ख) संस्कृति के बारे में लेखक क्या बताता है?
(ग) स्पष्ट कीजिए कि संस्कृति जीने का एक तरीका है।
(घ) संस्कृति एवं सभ्यता में अंतर स्पष्ट कीजिए।
(ड) संस्कृति पूर्वजन्म का संस्कार है। इसे बताने के लिए लेखक ने क्या उदाहरण दिया है?
(च) संस्कृति की रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है-स्पष्ट कीजिए।
(छ) संस्कृति जीने का तरीका क्यों है?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—
(ख) संस्कृति के बारे में लेखक क्या बताता है?
(ग) स्पष्ट कीजिए कि संस्कृति जीने का एक तरीका है।
(घ) संस्कृति एवं सभ्यता में अंतर स्पष्ट कीजिए।
(ड) संस्कृति पूर्वजन्म का संस्कार है। इसे बताने के लिए लेखक ने क्या उदाहरण दिया है?
(च) संस्कृति की रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है-स्पष्ट कीजिए।
(छ) संस्कृति जीने का तरीका क्यों है?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—
1. संस्कृति जीने का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है।-मिश्र वाक्य बनाइए।
2. विलोम बताइए—छाया, जीवन।
उत्तर –
(क) शीर्षक-सभ्यता और संस्कृति।
(ख) संस्कृति के बारे में लेखक बताता है कि इसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास साल में नहीं की जा सकती। इसके बनने में सदियाँ लग जाती हैं। इसके अलावा हमारे दैनिक कार्य-व्यवहार में हमारी संस्कृति की झलक मिलती है।
(ग) मनुष्य के अत्यंत साधारण से काम, जैसे-उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने, घूमने-फिरने और रोने-हँसने के तरीके में भी उसकी संस्कृति की झलक मिलती है। यद्यपि किसी एक काम को संस्कृति का पर्याय नहीं कहा जा सकता, फिर भी हमारे कामों से संस्कृति की पहचान होती है, अत: संस्कृति जीने का एक तरीका है।
(घ) संस्कृति और सभ्यता का मूल अंतर यह होता है कि संस्कृति हमारे सारे जीवन में समाई हुई है। इसका प्रभाव जन्म-जन्मांतर तक देखा जा सकता है। इसका संबंध परलोक से है, जबकि सभ्यता का संबंध इसी लोक से है। इसका अनुमान व्यक्ति के जीवन-स्तर को देखकर लगाया जाता है।
(ड) संस्कृति पूर्वजन्म का संस्कार है, इसे बताने के लिए लेखक ने यह उदाहरण दिया है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म भी उसके संस्कारों के अनुरूप ही होता है। जब हम किसी बालक-बालिका को बहुत तेज पाते हैं, तो कह बैठते हैं कि ये तो इसके पूर्वजन्म के संस्कार हैं।
(च) व्यक्ति अपने जीवन में जो संस्कार जमा करता है, वे संस्कृति के अंग बन जाते हैं। मरणोपरांत व्यक्ति अन्य वस्तुओं के अलावा इस संस्कृति को भी छोड़ जाता है, जो आगामी पीढ़ी के सारे जीवन में व्याप्त रहती है। इस तरह उसकी रचना और विकास में सदियों के अनुभवों का हाथ होता है।
(छ) व्यक्ति के उठने-बैठने, जीने के ढंग उस समाज में छाए रहते हैं, जिसमें वह जन्म लेता है। व्यक्ति अपने समाज की संस्कृति को अपनाकर जीता है, इसलिए संस्कृति जीने का तरीका है।
(ज)
(ख) संस्कृति के बारे में लेखक बताता है कि इसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास साल में नहीं की जा सकती। इसके बनने में सदियाँ लग जाती हैं। इसके अलावा हमारे दैनिक कार्य-व्यवहार में हमारी संस्कृति की झलक मिलती है।
(ग) मनुष्य के अत्यंत साधारण से काम, जैसे-उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने, घूमने-फिरने और रोने-हँसने के तरीके में भी उसकी संस्कृति की झलक मिलती है। यद्यपि किसी एक काम को संस्कृति का पर्याय नहीं कहा जा सकता, फिर भी हमारे कामों से संस्कृति की पहचान होती है, अत: संस्कृति जीने का एक तरीका है।
(घ) संस्कृति और सभ्यता का मूल अंतर यह होता है कि संस्कृति हमारे सारे जीवन में समाई हुई है। इसका प्रभाव जन्म-जन्मांतर तक देखा जा सकता है। इसका संबंध परलोक से है, जबकि सभ्यता का संबंध इसी लोक से है। इसका अनुमान व्यक्ति के जीवन-स्तर को देखकर लगाया जाता है।
(ड) संस्कृति पूर्वजन्म का संस्कार है, इसे बताने के लिए लेखक ने यह उदाहरण दिया है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म भी उसके संस्कारों के अनुरूप ही होता है। जब हम किसी बालक-बालिका को बहुत तेज पाते हैं, तो कह बैठते हैं कि ये तो इसके पूर्वजन्म के संस्कार हैं।
(च) व्यक्ति अपने जीवन में जो संस्कार जमा करता है, वे संस्कृति के अंग बन जाते हैं। मरणोपरांत व्यक्ति अन्य वस्तुओं के अलावा इस संस्कृति को भी छोड़ जाता है, जो आगामी पीढ़ी के सारे जीवन में व्याप्त रहती है। इस तरह उसकी रचना और विकास में सदियों के अनुभवों का हाथ होता है।
(छ) व्यक्ति के उठने-बैठने, जीने के ढंग उस समाज में छाए रहते हैं, जिसमें वह जन्म लेता है। व्यक्ति अपने समाज की संस्कृति को अपनाकर जीता है, इसलिए संस्कृति जीने का तरीका है।
(ज)
1. संस्कृति जीने का वह तरीका है, जो सदियों से जमा होकर समाज में छाया रहता है।
2. शब्द विलोम
छाया धूप
जीवन मरण
छाया धूप
जीवन मरण
16. विज्ञापन कला जिस तेजी से उन्नति कर रही है, उससे मुझे भविष्य के लिए और भी अंदेशा है। लगता है ऐसा युग आने वाला है, जब शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति और साहित्य आदि का केवल विज्ञापन कला के लिए ही उपयोग रह जाएगा। वैसे तो आज भी इस कला के लिए इनका खासा उपयोग होता है। बहुत-सी शिक्षण संस्थाएँ हैं, जो सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन हैं।
अपनी पीढ़ी के कई लेखकों की कृतियाँ लाला छगनलाल, मगनलाल या इस तरह के नाम के किसी और लाल की स्मारक निधि से प्रकाशित होकर लाला जी की दिवंगत आत्मा के प्रति स्मारक होने का फ़ज़ अदा कर रही हैं, मगर आने वाले युग में यह कला दो कदम आगे बढ़ जाएगी। विद्यार्थियों को विश्वविद्यालय के दीक्षांत महोत्सव पर जो डिग्रियाँ दी जाएँगी, उनके निचले कोने में छपा रहेगा-“आपकी शिक्षा के उपयोग का एक ही मार्ग है, आज ही आयात-निर्यात का धंधा प्रारंभ कीजिए। मुफ्त सूचीपत्र के लिए लिखिए।”
हर नए आविष्कारक का चेहरा मुस्कराता हुआ टेलीविजन पर जाकर कुछ इस तरह निवेदन करेगा-“मुझे यह कहते हुए हार्दिक प्रसन्नता है कि मेरे प्रयत्न की सफलता का सारा श्रेय रबड़ के टायर बनाने वाली कंपनी को है, क्योंकि उन्हीं के प्रोत्साहन और प्रेरणा से मैंने इस दिशा में कदम बढ़ाया था ’” विष्णु के मंदिर खड़े होंगे, जिनमें संगमरमर की सुंदर प्रतिमा के नीचे पट्टी लगी होगी-“याद रखिए, इस मूर्ति और इस भवन के निर्माण का श्रेय लाल हाथी के निशान वाले निर्माताओं को है।
वास्तुकला संबंधी अपनी सभी आवश्यकताओं के लिए लाल हाथी का निशान कभी मत भूलिए।” और ऐसे-ऐसे उपन्यास हाथ में आया करेंगे, जिनकी सुंदर चमड़े की जिल्द पर एक ओर बारीक अक्षरों में लिखा होगा-‘साहित्य में अभिरुचि रखने वालों को इक्का माक साबुन वालों की एक और तुच्छ भेंट।” और बात बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक पहुँच जाएगी कि जब एक दूल्हा बड़े अरमान से दुल्हन ब्याहकर घर आएगा और घूंघट हटाकर उसके रूप की प्रसन्नता में पहला वाक्य कहेगा तो दुल्हन मधुर भाव से आँख उठाकर हृदय का सारा दुलार शब्दों में उड़ेलती हुई कहेगी-“रोज सुबह उठकर नौ सौ इक्यावन नंबर के साबुन से नहाती हूँ।”
प्रश्न –
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) भविष्य के लिए लेखक को किस बात की आशंका हो रही है और क्यों?
(ग) आज शिक्षण संस्थाओं की क्या स्थिति है?
(घ) विज्ञापन ने अपनी पहुँच मंदिरों और भगवान के चरणों तक बना ली है। कैसे?
(ड) इस गद्यांश के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
(च) कुछ लेखकों की कृतियाँ किसी व्यक्ति-विशेष की स्मारक बन जाती हैं, कैसे?
(छ) आने वाले समय में विश्वविद्यालय की डिग्रियों की स्थिति क्या होगी? और क्यों?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—
(ख) भविष्य के लिए लेखक को किस बात की आशंका हो रही है और क्यों?
(ग) आज शिक्षण संस्थाओं की क्या स्थिति है?
(घ) विज्ञापन ने अपनी पहुँच मंदिरों और भगवान के चरणों तक बना ली है। कैसे?
(ड) इस गद्यांश के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
(च) कुछ लेखकों की कृतियाँ किसी व्यक्ति-विशेष की स्मारक बन जाती हैं, कैसे?
(छ) आने वाले समय में विश्वविद्यालय की डिग्रियों की स्थिति क्या होगी? और क्यों?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—
1. “बहुत-सी शिक्षण संस्थाएँ हैं, जो सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन हैं”-उपवाक्य और उसका भेद लिखिए।
2. संधि-विच्छेद कीजिए-दीक्षांत, महोत्सव।
उत्तर –
(क) शीर्षक-विज्ञापन युग।
(ख) लेखक को भविष्य के लिए इस बात की आशंका बढ़ती जा रही है कि ऐसा समय आने वाला है, जब शिक्षा विज्ञान, संस्कृति और साहित्य का प्रयोग केवल विज्ञापन कला भर के लिए ही रह जाएगा। उसका कारण यह है कि विज्ञापन कला निरंतर उन्नति की ओर अग्रसर है।
(ग) आज शिक्षण संस्थाएँ सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन बन चुकी हैं। उनके नाम को पढ़ते ही किसी धर्म, संप्रदायविशेष से उनका जुड़ाव प्रकट होने लगता है। ऐसा लगता है कि उनकी स्थापना उसी संप्रदाय-विशेष के हित के लिए की गई है। कुछ संस्थाओं के संचालन का जिम्मा कुछ ट्रस्टों की कृपा पर आश्रित होकर रह गया है।
(घ) विज्ञापन का प्रचार-प्रसार इतना बढ़ चुका है कि देवालय जैसे स्थान भी इसकी पहुँच से दूर नहीं रहे हैं। आज मंदिरों और देवालयों में भी तरह-तरह के विज्ञापन सरलता से देखे जा सकते हैं। दीवारों और मंदिर की मूर्तियों पर उनके दानदाता का नाम कुछ विज्ञापित करता दिखाई देता है।
(ड) इस गद्यांश के माध्यम से लेखक यह कहना चाहता है कि वर्तमान में विज्ञापन का बोलबाला है। इसने मानवजीवन को कदम-कदम पर प्रभावित किया है। शिक्षालय, देवालय, विद्यार्थियों की डिग्रियाँ भी किसी-न-किसी व्यक्ति या वस्तु का विज्ञापन करती नजर आती हैं। भविष्य में इसके बढ़ते रहने की प्रबल संभावना है।
(च) जब कुछ लेखकों की कृतियाँ धनाभाव में प्रकाशित नहीं हो पाती हैं, तब किसी लाला छगनलाल, मगनलाल की सहायता राशि से प्रकाशित होती हैं, परंतु उस पर सहायक व्यक्ति या संस्था का नाम लिखा जाता है। इस प्रकार वह कृति उस व्यक्ति-विशेष की स्मारक बन जाती है।
(छ) आगामी समय में विश्वविद्यालय की डिग्रियाँ व्यक्ति की योग्यता का प्रमाण-पत्र कम, विज्ञापन का साधन अधिक होंगी, क्योंकि उन पर शिक्षार्थी की योग्यता के उल्लेख के साथ-साथ विज्ञापन संबंधी वाक्य भी होंगे, जो आयात-निर्यात के धंधे और सूची-पत्र पाने की जगह के बारे में बताएँगे।
(ज)
(ख) लेखक को भविष्य के लिए इस बात की आशंका बढ़ती जा रही है कि ऐसा समय आने वाला है, जब शिक्षा विज्ञान, संस्कृति और साहित्य का प्रयोग केवल विज्ञापन कला भर के लिए ही रह जाएगा। उसका कारण यह है कि विज्ञापन कला निरंतर उन्नति की ओर अग्रसर है।
(ग) आज शिक्षण संस्थाएँ सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन बन चुकी हैं। उनके नाम को पढ़ते ही किसी धर्म, संप्रदायविशेष से उनका जुड़ाव प्रकट होने लगता है। ऐसा लगता है कि उनकी स्थापना उसी संप्रदाय-विशेष के हित के लिए की गई है। कुछ संस्थाओं के संचालन का जिम्मा कुछ ट्रस्टों की कृपा पर आश्रित होकर रह गया है।
(घ) विज्ञापन का प्रचार-प्रसार इतना बढ़ चुका है कि देवालय जैसे स्थान भी इसकी पहुँच से दूर नहीं रहे हैं। आज मंदिरों और देवालयों में भी तरह-तरह के विज्ञापन सरलता से देखे जा सकते हैं। दीवारों और मंदिर की मूर्तियों पर उनके दानदाता का नाम कुछ विज्ञापित करता दिखाई देता है।
(ड) इस गद्यांश के माध्यम से लेखक यह कहना चाहता है कि वर्तमान में विज्ञापन का बोलबाला है। इसने मानवजीवन को कदम-कदम पर प्रभावित किया है। शिक्षालय, देवालय, विद्यार्थियों की डिग्रियाँ भी किसी-न-किसी व्यक्ति या वस्तु का विज्ञापन करती नजर आती हैं। भविष्य में इसके बढ़ते रहने की प्रबल संभावना है।
(च) जब कुछ लेखकों की कृतियाँ धनाभाव में प्रकाशित नहीं हो पाती हैं, तब किसी लाला छगनलाल, मगनलाल की सहायता राशि से प्रकाशित होती हैं, परंतु उस पर सहायक व्यक्ति या संस्था का नाम लिखा जाता है। इस प्रकार वह कृति उस व्यक्ति-विशेष की स्मारक बन जाती है।
(छ) आगामी समय में विश्वविद्यालय की डिग्रियाँ व्यक्ति की योग्यता का प्रमाण-पत्र कम, विज्ञापन का साधन अधिक होंगी, क्योंकि उन पर शिक्षार्थी की योग्यता के उल्लेख के साथ-साथ विज्ञापन संबंधी वाक्य भी होंगे, जो आयात-निर्यात के धंधे और सूची-पत्र पाने की जगह के बारे में बताएँगे।
(ज)
1. उपवाक्य-जो सांप्रदायिक संस्थाओं का विज्ञापन हैं। भेद-विशेषण उपवाक्य।
2. शब्द संधि-विच्छेद
दीक्षांत दीक्षा + अंत
महोत्सव महा + उत्सव
दीक्षांत दीक्षा + अंत
महोत्सव महा + उत्सव
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