Wednesday, 13 February 2019

कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन – अनुच्छेद कक्षा -12 N.C.E.R.T Page-6




कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन  अनुच्छेद

27. सहशिक्षा की प्रासंगिकता
सहशिक्षा आधुनिक युग की देन है। आज का विचारक स्त्री-पुरुष के बीच प्राकृतिक भेद तो स्वीकार करता है, परंतु उस भेद को इतना गहरा नहीं मानता कि एक पक्ष को चारदीवारी में बंद कर दे तथा दूसरे को संपूर्ण सामाजिक जिम्मेदारियाँ सौंपकर निश्चित हो जाए। पुराने जमाने में नारी को शिक्षा केवल धार्मिक स्तर की दी जाती थी, परंतु समय बदलने के साथ समाज में भी परिवर्तन आया। नारी और पुरुष के बीच धीरे-धीरे एक सहयोग भावना का जन्म हुआ।
आज सहशिक्षा एक विद्यमान सत्य है, इसलिए उसकी आवश्यकता और अनावश्यकता पर विचार करने का प्रश्न उतना चिंतन का नहीं है, जितना पहले कभी था। आज यह प्रश्न है कि-इस सहशिक्षा से वे उद्देश्य पूर्ण हुए या नहीं जिसके लिए उसे शुरू किया गया था? नि:संदेह सहशिक्षा ने हमारे मनों को उदारता दी है। लड़के-लड़कियाँ आपस में बोलने, आने-जाने विचारने में अब नहीं शरमाते। उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। दूसरी तरफ लड़कों के भीतर नारी के प्रति कौतूहल भी प्राय: शांत हुआ है। उनके अंदर दंभ का विस्फोटक भी बुझ-सा गया है।
सहशिक्षा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में भी बदलाव आया है। अब लड़के-लड़की को साथ देखकरहाय-तौबानहीं मचती। इसके अतिरिक्त, कक्षा के माहौल में सुधार हुआ है। लड़के लड़कियों को वेश-भूषा वाणी पर संयम रखना पड़ता है। उन्हें अपमानित होने का भय हमेशा रहता है। यह आत्म-सजगता उन्हें जीने की मर्यादा का पहला पाठ पढ़ाती है।
अध्यापक को लड़के-लड़कियों को पढ़ाने के लिए एक संयम का निर्वाह करना पड़ता है ताकि कक्षा की मर्यादा टूटे। यह संयम विषय की रोचकता को कम नहीं करता, बल्कि उसे और उपयोगी सरल बना देता है। सहशिक्षा के कारण ही नारी हर तरह के कर्मक्षेत्र में कार्य करने में सक्षम हो सकी है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सहशिक्षा के दुष्परिणाम नहीं हैं। सहशिक्षा ने लड़कों लड़कियों में आत्मप्रदर्शन की भावना भर दी है। प्राकृतिक रूप से दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं, परंतु वे आकर्षण जगाने के लिए अप्राकृतिक उपकरणों का सहारा लेते हैं।
सहशिक्षा का सबसे बड़ा नुकसान है-उत्तरदायित्व का। समाज में पुरुष नारी के उत्तरदायित्व अलग-अलग निर्धारित थे। लड़कियों को घर व्यवस्थित करना होता था तो पुरुष को बाहय संघर्ष झेलना होता था। दोनों के उद्देश्य अलग थे, परंतु सहशिक्षा द्विारा इस निर्धारित उत्तरदायित्व का क्रमश: क्षरण हो रहा है। नारी का घर से बाहर निकल जाना आर्थिक स्वतंत्रता की दृष्टि से कितना भी महत्वपूर्ण क्यों हो, सामाजिक संतुलन की दृष्टि से घातक सिद्ध हो रहा है।
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि सहशिक्षा तभी प्रभावी हो सकती है जब हम पहले शिक्षा के सामान्य उद्देश्य में परिवर्तन करें। नारी के कोमल गुणों को सुरक्षित रखना होगा, अन्यथा समाज बिखर जाएगा। सहशिक्षा जीवन को विकास तभी देगी जब शिक्षा का उद्देश्य होगा-विवेक का विकास और राष्ट्रीय भावना की समृद्धि। जब तक शिक्षा ज्ञान और कर्तव्य को नहीं जोड़ती, तब तक वह शिक्षा नहीं हो सकती।
28. राष्ट्रीयता और सांप्रदायिकता
वह राष्ट्र जिसमें हम बड़े होते हैं, शिक्षा पाते हैं और साँस लेते हैं-हमारा अपना राष्ट्र कहलाता है और उसकी सीमाओं में जन्म लेने वाले व्यक्तियों का धर्म, जाति, भाषा या संप्रदाय कुछ भी हो, आपस में स्नेह होना स्वाभाविक है। राष्ट्र के लिए जीना और काम करना, उसकी स्वतंत्रता के विकास के लिए काम करने की भावनाराष्ट्रीयताकहलाती है। किसी विशेष प्रकार की संस्कृति और धर्म को दूसरे पर आरोपित करने की भावना या धर्म अथवा संस्कृति के आधार पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने की क्रिया सांप्रदायिकता है।
सांप्रदायिकता समाज में वैमनस्थ पैदा करती है और सामाजिक या राष्ट्रीय एकता को क्षति पहुँचाती है। सांप्रदायिकता राष्ट्रीयता के लिए बाधक है क्योंकि राष्ट्रीयता की अनिवार्य शर्त है-देश की प्राथमिकता के लिए अपनेस्वको मिटाना। महात्मा गांधी, तिलक, सुभाषचंद्र बोस आदि के जीवन से पता चलता है कि राष्ट्रीयता की भावना के कारण उन्हें अनगिनत कष्ट उठाने पड़े। व्यक्ति को निजी अस्तित्व कायम रखने के लिए सभी पारस्परिक सीमाओं की बाधाओं को भुलाकर कार्य करना चाहिए तभी उसकी नीतियाँ-रीतियाँराष्ट्रीयकहलाने की भागीदार बन सकती हैं।
जबकि सांप्रदायिकता के फलस्वरूप एक संप्रदाय या धर्म वाला दूसरे संप्रदाय या धर्म की केवल निंदा करता है, अपितु अपने धर्म को बेहतर सिद्ध करने के लिए दूसरे के विरुद्ध दलबंदी भी करता है। वह दूसरे मतावलंबी को नेस्तनाबूत करने का प्रयत्न करता है। दूसरे शब्दों में, एक धर्म धर्मनीति जब मदांधता का वरण कर लेती है, तब वहसांप्रदायिकताकहलाने लगती है। उसमें दूसरे धर्मों जीवनदर्शनों की मान्यताओं के प्रति असहिष्णुता तीव्रतर होती है। इसका प्रभाव इतना भयंकर होता है कि हम मानव-धर्म भूलकर मानव-कृत धर्म को सर्वोपरि मानने लगते हैं।
बदला लेने की भावना को कभी भी श्रेयस्कर धर्म या पंथ नहीं कहा जा सकता। समान धर्मावलंबियों का दल बनाकर मारकाट आरंभ कर देना किसी भी धर्म का आदेश या सीख नहीं है। इस प्रकारराष्ट्रीयताऔरसांप्रदायिकतामानव-दर्शन के विपरीत मार्गी दो पक्ष हैं। किसी सांप्रदायिक भावना से संचालित व्यक्ति राष्ट्रीयता का समर्थक नहीं हो सकता। इसी प्रकार, राष्ट्रीयता का समर्थक कभी भी सांप्रदायिक नहीं हो सकता। वह भारत में रहने वाले सभी धर्मों, भाषाओं, जातियों आदि को समान दृष्टि से देखेगा। गांधी जी की प्रार्थना सभा में सभी धर्मों के अवतारों का नाम लेकर प्रार्थना की जाती थी। अकबर इलाहाबादी का भी कहना था-
मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना।
हिंदी हैं हम, वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा।
आधुनिक युग में भी प्रचार तंत्र के कारण व्यक्ति सांप्रदायिक हो उठता है। कुछ ही लोग विवेकी होते हैं जिन पर संप्रदाय प्रभाव नहीं डाल पाता। धार्मिक आधार पर बने पाकिस्तान में आज भी भयंकर मारकाट मची रहती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो राष्ट्रीयता से व्यक्ति का समग्र कल्याण होता है, जबकि सांप्रदायिकता से फूट और विघटनकारी तत्वों का जन्म होता है। राष्ट्रीयता में अहिंसा समाविष्ट होती है जबकि सांप्रदायिकता में हिंसा और संकुचित दृष्टि जैसे प्राणघाती तत्व निहित होते हैं।
29. विज्ञापन
जब समाचार-पत्रों में सर्वसाधारण के लिए कोई सूचना प्रकाशित की जाती है तो उसकोविज्ञापनकहते हैं। यह सूचना नौकरियों से संबंधित हो सकती है, खाली मकान को किराये पर उठाने के संबंध में हो सकती है या किसी औषधि के प्रचार से संबंधित हो सकती है। कुछ लोग विज्ञापन के आलोचक हैं। वे इसे निरर्थक मानते हैं। उनका मानना है कि यदि कोई वस्तु यथार्थ रूप में अच्छी है तो वह बिना किसी विज्ञापन के ही लोगों के बीच लोकप्रिय हो जाएगी, जबकि खराब वस्तुएँ विज्ञापन की सहायता से प्रचलित होने के बावजूद अधिक दिनों तक टिक नहीं पाएँगी, परंतु लोगों की यह सोच गलत है, क्योंकि आज के युग में उत्पादों की संख्या दिनपर-दिन बढ़ती जा रही है, ऐसे में विज्ञापनों का होना अनिवार्य हो जाता है।
किसी अच्छी वस्तु की वास्तविकता से परिचय पाना आज के विशाल संसार में विज्ञापन के बिना नितांत असंभव है। विज्ञापन ही वह शक्तिशाली माध्यम है जो उत्पादक औरउपभोक्तादोनों को जोड़ने का कार्य करता है। वह उत्पाद को उपभोक्ता के संपर्क में लाता है तथा माँग और पूर्ति में संतुलन स्थापित करने का प्रयत्न करता है। पुराने जमाने में विज्ञापन मौखिक तरीके से होता था, जैसे-काबुल का मेवा, कश्मीर की जरी का काम, दक्षिण भारत के मसाले आदि।
उस समय आवश्यकता भी कम होती थी तथा लोग किसी वस्तु के अभाव की तीव्रता का अनुभव नहीं करते थे। आज समय तेजी का है। संचार क्रांति ने जिंदगी कोस्पीडदे दी है और मनुष्य की आवश्यकताएँ बढ़ती जा रही हैं। लोग जिस वस्तु की खोज में रहते हैं, विज्ञापन द्वारा ही उसे कम खर्च में सुविधा के साथ प्राप्त कर लेते हैं, यही विज्ञापन की पूर्ण सार्थकता है। विज्ञापन से व्यक्ति अपने व्यापार व्यवसाय को फैला सकता है। अत: आधुनिक संसार विज्ञापन का संसार है। यदि हम किसी समाचार-पत्र या पत्रिका के पन्ने उलटते हैं तो विभिन्न प्रकार के विज्ञापन हमारा स्वागत करते हुए दिखाई देते हैं।
विभिन्न मुद्राओं के चित्र, भावपूर्ण शैली, लालसा कौतूहल पैदा करने वाले विज्ञापनों के ढंग हमारा मन मोह लेते हैं। घर से निकलते ही सड़कों पर होर्डिंग्स आपको रुकने पर विवश कर देते हैं तो घर के अंदर टी०वी० हर समय आपको कोई--कोई उत्पाद दिखाता रहता है। यह विज्ञापन का संसार इतना आकर्षण पैदा करता है कि संयमी चतुर भी इससे बच नहीं पाता। आज विज्ञापन एक व्यापार बन गया है। विज्ञापन द्वारा व्यापार बढ़ता है। किसी वस्तु की माँग बढ़ती है। विज्ञापन के सिर्फ़ लाभ ही हों, ऐसा नहीं है। इसके नुकसान भी हैं।
विज्ञापन व्यवसाय के विश्वास को डगमगा देता है। धूर्तता के कारण वस्तु या सेवा के हानिकारक पक्षों को नहीं दिखाया जाता। कंपनियाँ बिक्री बढ़ाने के चक्कर में अश्लीलता की तमाम हदें पार कर जाती हैं। सरकार को चाहिए कि ऐसे विज्ञापनों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए तथा दोषियों को सजा दे। भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ़ भी सख्त कार्यवाही होनी चाहिए।


30. खेलों का महत्व
खेल-कूद में रुचि बढ़ना देश के स्वास्थ्य का प्रतीक है, देशवासियों की समृद्धि का सूचक है। आजकल खेलों के प्रति दीवानगी बढ़ती जा रही है। इस दीवानगी को देखते हुए यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या यह भी स्वस्थ परंपरा का प्रतीक है? इसमें कोई दो राय नहीं कि पोषक भोजन के बिना मानव स्वस्थ नहीं रह सकता। यह भी उतना ही सच है कि अच्छे भोजन के साथ यदि मनुष्य खेलों में भाग ले तो वह स्वस्थ नहीं रह सकता।
अत: खेलों का नियमित अभ्यास करना स्वास्थ्य के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि संतुलित भोजन। वैसे तो जीवन की सफलता के लिए शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों में से कोई भी एक शक्ति किसी से कम महत्वपूर्ण नहीं है। फिर भी आम जनमानस में प्रचलित उक्ति है किस्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है इसलिए शरीर को पूर्ण रूप से स्वस्थ चुस्त बनाने के लिए कई प्रकार के शारीरिक अभ्यास किए जाते हैं, किंतु इनमें खेल-कूद सबसे प्रमुख हैं।
बिना खेल-कूद के जीवन अधूरा रह जाता है। कहा गया है-“सारे दिन काम करना और खेलना नहीं, यह होशियार को मूर्ख बना देता है।अत: खेलों से हमारा जीवन अनुशासित और आनंदित होता है। खेल भावना के कारण खिलाड़ी सहयोग, संगठन, अनुशासन एवं सहनशीलता का पाठ सीखते हैं। खेलने वालों में संघर्ष करने की शक्ति जाती है। खेल में जीतने की दशा में उत्साह और हारने की स्थिति में सहनशीलता का भाव आता है।
खेलते समय खिलाड़ी जीत हासिल करने के लिए अनुचित तरीके नहीं अपनाता और पराजय की दशा में प्रतिशोध की आग में नहीं जलता। उसमें स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का भाव होता है। खेल मनोरंजन का माध्यम भी हैं। खिलाड़ियों अथवा खेल-प्रेमियों-दोनों को खेलों से भरपूर मनोरंजन मिलता है। जो लोग सदैव काम में लगे रहते हैं खेलों के मनोरंजन से वंचित रह जाते हैं वे खेलों से मनुष्य अनुशासित जीवन जीना सीखता है। इससे मनुष्य नियमपूर्वक कार्य करने की शिक्षा लेता है।
नियमपूर्वक कार्य करने से व्यवस्था बनी रहती है तथा समाज का विकास होता है। इस प्रकार खेलों का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। ये हमारे जीवन को संपन्न खुशहाल बनाते हैं। इनके महत्व को देखते हुए हमें खेलों से अरुचि नहीं रखनी चाहिए।

31. साच्या मित्र
मनुष्य की प्रवृत्ति ऐसी है कि वह अकेला नहीं रह सकता। वह समूह में रहने का इच्छुक रहता है तथा सामूहिक प्रयासों से आत्मविकास करता है। इस दौरान वह समान प्रवृत्ति और समान कर्म के व्यक्तियों के साथ मित्रता स्थापित कर लेता है। हम सहज रूप से मित्र बना लेते हैं, किंतु इस प्रक्रिया में हम यह विचार नहीं करते कि वह मित्र की परिभाषा में उपयुक्त है भी या नहीं? वस्तुत: पंचतंत्र के अनुसार जो व्यक्ति न्यायालय, श्मशान और विपत्ति के समय साथ देता है, उसी को सच्चा मित्र या बाँधव माना जाता है।
मित्रता की पहली कसौटी यह है कि उसमें संदेह का स्थान नहीं होना चाहिए। यदि कोई अपने मित्र को संदेह की दृष्टि से देखता है तो निश्चित रूप से उसमें मित्रता के गुणों का अभाव है। दूसरे, स्वार्थ पर आधारित मित्रता कभी लंबे समय तक नहीं रहती। ऐसी मित्रता कार्य सिद्ध हो जाने पर टूट जाती है। मित्रता में विश्वास, आस्था आदि गुणों का होना अनिवार्य है। सच्चा मित्र वही है जो मित्रता के लिए सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर हो। मित्रों का कोई धर्म होता है और कोई संप्रदाय। वे देश-काल की सीमा से भी परे होते हैं। मित्रता का संबंध आंतरिक गुणों से होता है।
कहा भी गया है- ‘समानशील व्यसनेषु सख्यसू-समान शील व्यसन वाले जहाँ भी मिलते हैं, उनमें मित्रता स्वत: विकसित होने लगती है। हालाँकि सामान्यत: देखने में आता है कि व्यक्ति धन-दौलत रूप को देखकर मित्र बनने या बनाने की कोशिश करता है। वह उसकी प्रशंसा करता है, परंतु समय आने पर उसे नुकसान पहुँचाता है। इसके विपरीत, ऐसे भी मित्र होते हैं जो मित्र की कमियों पर नजर रखते हैं तथा समय-समय पर उसको आगाह करते रहते हैं। ऐसे मित्रों की बातें कड़वी अवश्य लगती हैं, परंतु वे ही सच्ची मित्रता के हकदार होते हैं।
दुर्जन मित्र के मध्य अंतर स्थापित करना कठिन कार्य रहा है। अत: मित्रता काफी सोच-समझकर ही स्थापित करनी चाहिए। आजकल स्कूल या कॉलेज में साथ पढ़ने वाले अकसर एक-दूसरे कोफ्रेंडयानी मित्र कहते हैं किंतु ये सच्चे मित्र नहीं होते। इने-गिने छात्र ही होंगे जिनमें मित्रता की भावना मिलेगी। विद्वानों का मानना है कि पुस्तकों से अच्छा मित्र या साथी कोई नहीं होता। पुस्तकों से जीवन-दर्शन के सच्चे दर्शन होते हैं। इनसे नयी पुरानी सामाजिक दशाओं का पता चलता है। संसार के लगभग सभी महान विचारक पुस्तक-प्रेमी रहे हैं।
गांधी, विवेकानंद, चाणक्य, नेहरू, शास्त्री आदि सभी ने पुस्तकों को ही अपना मित्र बनाया। निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि मित्रता की कसौटी आपत्तिकाल है। उसी समय सच्चे मित्र की परख होती है। मित्र के सामने मित्र की सहायता के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं होता, वह अपने लाभ की चिंता करके मित्र को लाभ पहुँचाता है। सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं तथा जो होते हैं, उन्हें बनाए रखना हमारा दायित्व होना चाहिए।

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