कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन – अनुच्छेद
32. कमरतोड़ महँगाई : समस्या और समाधान
आज सारा विश्व महँगाई के दैत्य से पीड़ित है परंतु भारत में इसकी वजह से विशेष रूप से चिंताजनक स्थिति है। आज दैनिक जीवनोपयोगी वस्तुएँ आम आदमी की पहुँच से बाहर हो रही हैं। पेट्रोल, डीजल आदि की मूल्य-वृद्धि से महँगाई और भड़कती जा रही है। सब्जी, दाल, फल आदि की आसमान छूती महँगाई पुकार-पुकार कर कहती है-
रुखी सुखी खाय के ठंडा पानी पी।
मकानों के किराये बेतहाशा बढ़ रहे हैं। कम आय के व्यक्ति के लिए महानगर में रहना बेहद कठिन होता जा रहा है। महँगाई से उत्पादक वर्ग अधिक पीड़ित नहीं होता। इसका कारण यह है कि वह अपने उत्पाद की कीमत बढ़ा देता है। सरकारी कर्मचारी भी महँगाई की मार से बच जाता है, क्योंकि उसका महँगाई भत्ता बढ़ जाता है। इससे सर्वाधिक प्रभावित गैर-सरकारी कर्मचारी तथा श्रमिक वर्ग होता है, क्योंकि उत्पादन या सेवा प्रक्रिया में इनकी प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती। इनकी आय के स्रोत लगभग सीमित होते हैं। इनका वेतन महँगाई के अनुरूप नहीं बढ़ता।
महँगाई बढ़ने के विभिन्न कारण हैं। उनमें से प्रमुख कारण हैं-देश की तेजी से बढ़ रही आबादी और इसके मुकाबले संशाधनों का विकास धीमी गति से होना प्राकृतिक कारण एवं सरकारी अफ़सर और जमाखोरों की मिलीभगत आदि। किंतु मुख्य रूप से महँगाई का कारण जमाखारी है। जमाखोरी की वजह से वस्तुएँ इस कदर दुर्लभ हो जाती हैं कि मुँहमाँगी रकम देने के बावजूद भी प्राप्त नहीं हो पाती हैं। बिडंबना तो यह है कि मैंहगाई के विरोध में सरकार की इच्छा-शक्ति भी कमजोर है। इस देश में सार्वजनिक क्षेत्र स्थापित करने का उद्देश्य जनता के लिए उचित दरों पर वस्तुएँ उपलब्ध कराना तथा संरचनात्मक विकास करना था, परंतु अयोग्य कर्मचारियों, राजनीतिक हस्तक्षेप व भ्रष्टाचार के कारण ये लाभ की बजाय हानि उत्पन्न कर रहे हैं।
अत: निजी क्षेत्र के उत्पादक अपने उत्पादों पर अपनी मजी का विक्रय मूल्य लिखते हैं, परंतु वे उत्पादन लागत नहीं लिखते। अत्यधिक मुनाफ़े की प्रवृत्ति महँगाई को बढ़ा रही है। सरकारी नीति, टैक्स दर, विकास के नाम पर लूट आदि कारक भी महँगाई बढ़ाते हैं। ‘सेज’ बनाने के नाम पर जमीन की कीमतें आसमान छू रही हैं। ऊपर से सरकारी खर्च में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। अत: विकास योजनाएँ पर्याप्त धन के अभाव में समय पर पूरी नहीं हो पातीं।
विकसित देशों की श्रेणी में खड़े होने के लिए हम चाँद पर बस्ती बनाने की बात कर रहे हैं, परंतु आम जनता को जनता को महँगाई की वजह से जीना दूभर हो गया है। इस महँगाई की इस बाढ़ को रोकने के लिए अनेक उपाय किए जा सकते हैं। सबसे पहले आवश्यक वस्तुओं की वर्तमान दरों और उनके मूल्यों को यदि कम करना संभव न हो सके तो उन्हें स्थिर रखना आवश्यक है। देश की आवश्यकताओं का सही और तथ्यात्मक अनुमान लगाकर दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाना होगा।
विकास योजनाएँ बनाते समय उनकी आम जनता के लिए उपयोगिता को ध्यान में रखना होगा। शासन-प्रशासन, योजना-गैर-योजना के स्तरों पर जो भ्रष्टाचार पनप रहा है, उसे समाप्त करने की ओर भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। कर्मचारियों की कार्यनिष्पादन-क्षमता में वृद्ध करना जरूरी है। जनसंख्या की निर्बाध वृद्ध को नियंत्रित करना आवश्यक ही नहीं, बल्कि प्राथमिक आवश्यकता है। इन सब कार्यों के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा। शासक व विरोधी-सभी को एकजुट होकर महँगाई के जिन्न के खिलाफ़ संघर्ष करना होगा।
33. पर उपदेश कुशल बहुतेरे
समाज में उपदेश देने में किसी को कोई परहेज नहीं होता। हर व्यक्ति स्वयं को निर्दोष, चरित्रवान, सत्यवादी मानता है, परंतु दूसरे उसे कपटी, धूर्त, मक्कार, धोखेबाज नजर आते हैं। हालाँकि यह अवगुण दुर्जनों में अधिक पाया जाता है। संस्कृत में कहा गया है कि दुर्जन दूसरों के राई के समान मामूली दोषों को पहाड़ के समान बड़ा बनाकर देखता है और अपने पहाड़ के समान बड़े पापों को देखते हुए भी नहीं देखता। सज्जन अपने दोषों को पहले देखता है।
महात्मा बुद्ध, दयानंद, महात्मा गाँधी आदि अनेक महापुरुषों की यही भावना रही है। अपनी कमियों को स्वीकार करना आत्मबल का चिहन है। जो लोग अपनी भूल या दोष को दूसरों के सामने नहीं स्वीकारते, वे सबसे बड़े कायर हैं। जिसके अंत:करण शीशे के समान होते हैं, वे अपनी भूल को तुरंत मान लेते हैं। दूसरों की बुराइयों को देखने की बजाय अपने मन की बुराइयों को टटोलना अधिक अच्छा है।
मनुष्य को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। यह आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। इससे वह अपनी त्रुटियाँ दूर कर सकता है। उसे व्यापारी वाली प्रवृत्ति को अपनाना चाहिए ताकि शाम के समय दिन भर का हिसाब-किताब मालूम रहे। इस कार्य में सबसे बड़ी बाधा सच्चाई का सामना करने में है। महात्मा गांधी ने सदा अपनी भूलों को स्वीकार किया तथा सदा यही पाठ पढ़ाया कि दूसरों की बुराई खोजने से पहले अपने अंतर्मन में झाँक लेना चाहिए।
पवित्र आत्मा वाले व्यक्ति को संसार में कोई बुरा नहीं दिखाई देता। इसका कारण उनके मन की पवित्रता है। वह स्वयं पवित्र है तो उसे दूसरा पापी कैसे दिखाई देगा। उन्हें तो स्वयं में कमी दिखाई देती है। यही उनकी विनम्रता है। हालाँकि अच्छाई और बुराई में अंतर करते समय यह परेशानी होती है कि कोई कार्य किसी के लिए अच्छा हो सकता है तो दूसरे के लिए बुरा। यह व्यक्तिगत समझ-बूझ या स्वार्थ पर आधारित हो सकता है, अत: हमें दूसरों की कमियाँ देखने की अपेक्षा अपनी कमियाँ देखनी चाहिए।
अधिकांश व्यक्तियों में कोई-न-कोई कमी अवश्य होती है। यदि मनुष्य में कोई कमी न हो तो वह देवता बन जाता है। अत: मनुष्य को अपनी कमियाँ दूर करनी चाहिए, न कि दूसरों की कमियों को लेकर टीका-टिप्पणी करनी चाहिए। समाज में यदि हर व्यक्ति अपने-अपने दोषों का परिहार कर ले तो समाज एक हँसता हुआ गुलाब बन जाए।
34. भ्रष्टाचार : एक सामाजिक कोढ़
अथवा
भ्रष्टाचार का दानव
अथवा
भ्रष्टाचार : समस्या और समाधान
अथवा
भ्रष्टाचार का दानव
अथवा
भ्रष्टाचार : समस्या और समाधान
‘भ्रष्टाचार’ शब्द ‘भ्रष्ट + आचार’ दो शब्दों के योग से बना है। ‘भ्रष्ट’ का अर्थ है-मर्यादा से हटना या गिरना और ‘आचार’ का अर्थ है-आचरण। अर्थात जब व्यक्ति अपनी वैयक्तिक, पारिवारिक तथा सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करके, स्वेच्छाचारी हो जाता है तो उस दशा में उसे ‘भ्रष्टाचारी’ कहते हैं। भारत में अनेक समस्याएँ हैं। इन समस्याओं से मानवता दिन-प्रति-दिन दम तोड़ रही है। विकास हो रहा है, बड़े-बड़े कारखाने बन रहे हैं, भीड़ बढ़ रही है, परंतु आदमी छोटा होता जा रहा है, क्यों? क्योंकि भ्रष्टाचार का दानव हर क्षेत्र में उसे दबोच रहा है।
भ्रष्टाचार अनेक रूपों में विद्यमान है; जैसे-रिश्वत, तस्करी, कालाबाजारी तथा भाई-भतीजावाद आदि। आज यह जीवन की हर परत में विद्यमान है। पुराने समय में मर्यादा तोड़ने वाले व्यक्ति का हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता था, परंतु आज हुक्का-पानी बंद करने वाले भ्रष्टाचार से कुछ ज्यादा ही ओत-प्रोत हैं। भ्रष्टाचार के मूल कारणों की खोज करें तो पता चलता है कि भौतिकवाद के कारण जीवन-मूल्यों में परिवर्तन आ गया है। आज हम विज्ञान की दुहाई देकर भौतिकवादी दर्शन के भक्त बन गए हैं।
शिक्षा व विकास के नाम पर हमें अनेक सुविधाएँ चाहिए। फलत: धन के सहित अयोग्यता भी योग्यता बन जाती है। ऐसे में भ्रष्टाचार का बढ़ना स्वाभाविक है। तत्कालीन व्यवस्था आपाद-मस्तक भ्रष्टाचार से ओत-प्रोत है। बहती गंगा में सभी हाथ धो रहे हैं। प्रश्न यह है कि इस भ्रष्टाचार रूपी दानव का खात्मा कैसे हो? इस प्रश्न के समाधान के लिए हमें स्वयं से शुरुआत करनी होगी। हमें वैयक्तिक जीवन में होड़ से बचना होगा।
सामाजिक स्तर पर उपेक्षा भी सहनी पड़ सकती है क्योंकि जब तक सामाजिक दर्शन तथा स्तर पर सुधार नहीं होगा, भ्रष्टाचारी गलत तरीकों से धन उपार्जित करके समाज में प्रतिष्ठा पाता रहेगा और भौतिक सफलताओं की सीढ़ी पर चढ़ता जाएगा। सामाजिक स्तर पर ऐसे व्यक्तियों का बहिष्कार या उपेक्षा करनी होगी। सच्चे व ईमानदार व्यक्ति को वर्ग, जाति, आर्थिक दशा के स्तर पर भेदभाव किए बिना सम्मानित करना होगा। राजनीतिक स्तर पर पहल करनी होगी। चुनाव जीतने के लिए अपनाए जाने वाले भ्रष्ट तरीकों पर लगाम लगानी होगी।
संस्थाओं को चंदा काला धन छिपाने के लिए दिया जाता है। ऐसे दान को भी रोकना पड़ेगा। कानून को इतना सक्षम बनाना होगा कि वह भ्रष्टाचारी की पद-प्रतिष्ठा को एक ओर रखते हुए तुरंत कठोर दंड देने में सक्षम हो। व्यक्ति को चाहिए कि वह स्वयं को परिवार के स्तर से उठाकर समाज व राष्ट्र से जोड़े तथा अपने कार्य की सीमा को विस्तृत करे।
35. छोटे परिवार के सुख-दुख
मानव सभ्यता के विकास के साथ जीवनयापन में कठिनाई आती जा रही है। आज जीवन-यापन के साधन अत्यंत महँगे होते जा रहे हैं। इस कारण परिवारों का निर्वाह मुश्किल से हो रहा है। इस समस्या का मूल खोजने पर पता चलता है कि जनसंख्या-वृद्धि के अनुपात में जीवनोपयोगी वस्तुओं एवं साधनों में वृद्धि नहीं हुई है। अत: हर देश में परिवारों को छोटा रखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। किंतु छोटे परिवार के साथ सुख-दुख दोनों जुड़े हैं। हालाँकि छोटे परिवार के सुखी होने के पीछे अनेक तर्क दिए जाते हैं।
सर्वप्रथम, छोटे परिवार में सुखदायक संसाधन आसानी से उपलब्ध कराए जा सकते हैं। यदि कोई कठिनाई आती है तो उसका निराकरण अधिक कठिन भी नहीं होता। बड़े परिवार के लिए स्थितियाँ अत्यंत विकट हो जाती है। आधुनिक समय में रोजगार, मकान आदि की व्यवस्था बेहद महँगी होती जा रही है। इन्हीं सब कारणों से छोटा परिवार सुखी माना जाता है। परिवार छोटा होने पर हर सदस्य को आयु के अनुसार सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। सभी को पौष्टिक भोजन, तन ढकने को अच्छा वस्त्र और रहने के लिए साफ़-सुथरा आवास दिया जा सकता है।
शिक्षा व स्वास्थ्य का भी पूरा ध्यान रखा जा सकता है। यह उचित व्यवस्था ही उस परिवार के सुख का कारण बनती है। इसके विपरीत, बड़े परिवार में चाहे वह कितना ही संपन्न क्यों न हो, हरेक के लिए सुविधाएँ नहीं जुटा सकता। सभी के लिए उचित व पौष्टिक आहार, वस्त्र, आवास की व्यवस्था कर पाना संभव नहीं। पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठा पाना भी दूर की कौड़ी जैसा ही है। हालाँकि ऐसा नहीं है कि छोटे परिवार के सिर्फ़ सुख ही हैं, दुख नहीं।
छोटे परिवार में सुविधाएँ होती हैं, परंतु अपनापन नहीं होता। छोटे परिवार का व्यक्ति सामाजिक नहीं हो पाता। वह अहं भाव से पीड़ित होता है। इसके अलावा, बीमारी या संकट के समय जहाँ बड़े परिवार की जरूरत होती है, छोटा परिवार कभी खरा नहीं उतरता। इसमें वैयक्तिकता का भाव मुखर होता है, जबकि बड़े परिवारों में प्रेम-भावना, जिम्मेदारी, स्नेह, दुलार मिलता है। बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति, मादक द्रव्यों का सेवन आदि प्रवृत्तियाँ छोटे परिवारों की देन हैं। इन सबके बावजूद, आज के वातावरण में आम व्यक्ति को अपनी सामथ्र्य के अनुसार ही परिवार का विस्तार करना चाहिए। छोटे परिवार के साथ ही जीवन को सहज ढंग से जिया जा सकता है, अन्यथा निरंतर दुख झेलते हुए, जीते जी मर जाने के समान है।
36. महानगरों में आवास-समस्या
मानव की तीन मूलभूत आवश्यकताएँ हैं-रोटी, कपड़ा और आवास। जिस देश में इन तीनों आवश्यकताओं की पूर्ति सहज तरीके से हो जाती है, वे देश संपन्न हैं। अत: आवास मानव की प्रमुख जरूरतों में से एक है। यह मनुष्य को स्थायित्व प्रदान करता है। आज के जीवन में चाहे वह नगर हो, ग्राम हो या कस्बा हो, आवास की समस्या गंभीर होती जा रही है।
महानगरों में रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, सत्ता आदि का केंद्रीयकरण हो गया है, अत: वहाँ चारों दिशाओं से लोग बसने के लिए आ रहे हैं। इस कारण वहाँ आवास की समस्या विकट होती जा रही है। इस समस्या का मुख्य कारण सरकार की अदूरदर्शिता है। सरकार ने देश के समग्र विकास की नीति नहीं बनाई। सरकार ने देश के चंद क्षेत्रों में बड़े उद्योग-धंधों को प्रोत्साहन दिया। इन उद्योग-धंधों के साथ बड़ी संख्या में सहायक इकाइयाँ लगीं। सरकार ने इन सहायक इकाइयों को अन्य क्षेत्रों में स्थापित करने में कोई सहयोग नहीं दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में लोगों का केंद्रण एक जगह ही हो गया। इस कारण बने महानगरों में आवास की समस्या उत्पन्न हो गई। दूसरे, सरकार ने ऐसे क्षेत्रों में आवास संबंधी कोई स्पष्ट नीति भी नहीं बनाई।
महानगरों में आवास-समस्या के अन्य कारण भी हैं। इन क्षेत्रों में जिन लोगों के पास अतिरिक्त मकान था, आवास सुविधा थी, उन्होंने लोगों को किराये पर जगह दी। जैसे-जैसे महँगाई बढ़ी, इनके परिवार भी बढ़े तो इन्होंने अपने मकानों को खाली कराना प्रारंभ किया। इससे मुकदमेबाजी बढ़ी। किराया-कानून बने, परंतु झगड़े बढ़ते गए। इसका परिणाम यह हुआ कि अब आम व्यक्ति को मकान मिलता ही नहीं। दूसरे, इन मकान-मालिकों को यह महसूस हुआ कि वे रिहायशी क्षेत्रों को दुकानों या व्यापारिक प्रतिष्ठानों में बदलकर अधिक लाभ कमा सकते हैं।
फलस्वरूप गली-गली में दुकानें खुल गई। फलस्वरूप लोग झुग्गी-झोंपड़ी में या एक-एक कमरे में पाँच से दस लोग रहने को मजबूर हैं। नेताओं ने वोट बैंक के लिए झुग्गियाँ बसानी शुरू कर दीं। फलत: गंदगी का साम्राज्य फैलता गया। ऐसे में बिल्डर कहाँ चूकने वाले थे। उन्होंने भी इस आपाधापी का फ़ायदा उठाया और अवैध रूप से मकान बनाए। इस प्रकार वैध व सुविधाजनक आवास की समस्या दिन-पर-दिन विकराल रूप धारण करती जा रही है। इसका सबसे अच्छा उपाय है महानगरों से रोजगार का आकर्षण कम करना। इसके लिए सरकार को उद्योगों, व्यापार व सरकारी कार्यालयों को महानगरों से दूर करना होगा। सत्ता का विकेंद्रीकरण करना होगा। दूसरे नगरों, कस्बों, ग्रामों आदि में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे। इन उपायों से महानगरों की आवास-समस्या पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
37. कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ
20वीं सदी के प्रारंभ में विश्व में महिलाओं का स्थान घर-परिवार की जिम्मेदारियाँ तक ही सीमित था। किंतु आधुनिकीकरण के साथ-साथ समाज के संरचनात्मक स्तर में भी परिवर्तन आया। महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खुले और महिलाओं ने आजादी के संघर्ष में बढ़-चढ़कर भाग लिया। यही नहीं आजादी के बाद बदलते सामाजिक परिदृष्य की उपज अभाव और महँगाई से दो-चार होने के लिए महिलाओं को घर की जिम्मेदारियाँ निभाने के अलावा नौकरी व अन्य व्यवसाय भी करने पड़े। इन सबके बावजूद, उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता है। दूसरे, यदि महिलाकर्मी कुंवारी है तब सहकर्मी पुरुषों की ही नहीं, राह चलतों की गिद्ध दृष्टि भी उसे निगलने को तत्पर रहती है। उसे अनुचित संवाद सुनने पड़ते हैं तथा अनचाहे स्पर्श व संकेत झेलने पड़ते हैं।
अधिकारी भी उन्हें अधिक समय तक रुकने के लिए मजबूर करते हैं। इसका कारण भारतीय पुरुष की गुलाम मानसिकता है। विवाहित कामकाजी महिलाओं की समस्या भी कम नहीं होती। उन्हें नौकरी करने के साथ-साथ घर के पूर्वनिर्धारित सभी कार्य करने पड़ते हैं। पुरुष-प्रधान समाज में उसके कार्यों को दूसरा कोई नहीं करता। उसका व्यक्तित्व घर-बाहर में बँटा रहता है। अधिक कमाने वाला पति स्वयं को महत्वपूर्ण समझता है तथा कम कमाने वाला हीनग्रंथि का शिकार हो जाता है। ऐसी स्थिति में पति-पत्नी के संबंध तनावपूर्ण हो जाते हैं।
अगर घर में सास-ननद हैं तो वे अपने व्यंग्यवचनों से उसे छलनी करती रहती हैं। इस प्रकार की विषम एवं अटपटी स्थितियों के दुष्परिणाम अकसर सामने आते रहते हैं। कई बार घर-परिवार का बँटवारा हो जाता है तो इसका दोषी भी कामकाजी महिला को माना जाता है। कामकाजी महिला के बच्चों के लिए बड़ी समस्या आती है। ऐसी महिलाओं के बच्चों को सास या ननद भी नहीं रखतीं क्योंकि उनका अहं आड़े आता है।
इसके अलावा, बच्चों को ‘क्रच’ या ‘डे केयर सेंटर’ जैसी दुकानों पर छोड़कर काम पर जाना पड़ता है जहाँ मोटी फीस देने पर भी बच्चों को वह सब नहीं मिल पाता जो आवश्यक रूप से मिलना चाहिए। इस प्रकार बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं। निष्कर्षत: आवश्यकता इस बात की है कि समाज की मानसिकता, घर-परिवार और समूचे जीवन की परिस्थितियाँ ऐसी बनाई जाएँ कि कामकाजी महिला को काम बोझ न लगे तथा वह पुरुष के समान व्यवहार व व्यवस्था में सहभागी बने।
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